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आचार्य रत्नपभमरि (चतुर्थ) का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१९-६१८
सूरिजी-जसा ! नौपदजी के गटा में जो आगर्योपाध्याय और साधु की स्थापना है वह वर्तमान काल की नहीं है पर भूतकाल की है अर्थात् आचार्य होकर मोक्ष गये उपाध्याय होकर मोक्ष गये और साधु होकर मोक्ष गये जिसको नैगमनय के मत से भूतकाल की वर्तमान में स्थापना कर पूजे जाते हैं।
___ जसा-पूज्यवर ! तब तो अन्य लिंगी और गृहस्थलिंगी भी मोक्ष जाते हैं उनकी भी स्थापना उसी लिंग में होनी चाहिये ?
सूरिजी- जसा ! अन्य लिंगी और गृहस्थलिंगी मोक्ष जाते हैं वह बिना भाव चरित्र के मोक्ष नहीं जाते हैं । अन्य लिंगी प्रथम गुणस्थान और गृहस्थलिंगी पहले से पांचवे गुणस्थान वृति होते हैं जब वे छट्टा गुणस्थान को स्पर्श करते हुए ऊपर चढ़ते हैं तब जाकर वे तेरहवें गुणस्थान कैवल्य ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः उनकी अलग स्थापना की जरूरत नहीं पर वे साधु पद में ही गिने जाते हैं।
जसा-क्यों पूज्यवर ! आदि तीर्थंकरों के मन्दिर में न करवा कर एक अलग मन्दिर बनवा कर गुरुदेव को मूर्ति स्थापित की जाय तो क्या हर्ज है ?
सूरिजी-जसा ! मैं हर्ज की बात नहीं करता हूँ पर भविष्य की बात करता हूँ। जैसे आचार्य रत्नप्रभसूरि का तुम पर उपकार है वैसा मुझ पर भी है पर आप सोचिये कि गणधर सौधर्म एवं जम्बु तो केवली आचार्य हुये हैं। क्या उनके कोई भी भक्त नहीं थे कि किसी ने उनकी मूर्ति एवं मन्दिर नहीं करवाया । पर वे लोग अच्छी तरह से सभमते थे कि मन्दिर और मूर्तियां केवव तीर्थंकरों की ही होती हैं कि जिन्हों के पांच कल्याणक हुये हों।
जसा-क्यों गुरुदेव ! श्रीसिद्धगिरि तीर्थ पर एवं उपकेशपुर में आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि जी महाराज के थूम है तव यहाँ बनवाने में क्या हर्ज है ?
सूरिजी-तब ही ती तुम्हारी भावना हुई है और तुम्हारी देखा देखी पीछे दूसरों की भी भावना होगी और वही बात मैं कह रहा हूँ । जसा थंभ करवाना दूसरी बात है और तीर्थंकरों के मन्दिर में प्राचार्यों की मूर्ति स्थापन करवा कर तीर्थंकरों की भाँति जल चन्दन पुष्पादि से पूजा करवाना दूसरी बात है । धुंभ तो केवल एक स्मृति चिन्ह होता है । जिसकी तीर्थंकरों की भाँति पूजा नहीं की जाती है।
___ जसा-क्यों गुरु महाराज ! स्थापनाचार्य रखे जाते हैं यह भी तो एक गुरु मूर्ति ही है फिर गुरु मूर्ति बनाने में क्या हर्जा है ?
सूरिजी-गुरु स्थापना रखना शस्त्र में कहा है पर मूर्ति और स्थापनाचार्य में अन्तर है। कारण मूर्ति की सदैव जल चन्दनादि से पूजा होती है तब स्थापनाजी का भावस्तव किया जाता है। मूर्ति के लिये मन्दिरादि स्थान की आवश्यकता रहती है तब स्थापना साधुओं के पास रहती है । स्थापना गुरुभाव से रक्खी जाती है तब मूर्ति की पूजा जन्मादि कत्याणक की भाँति होती है।
जसा-ठीक है गुरु महाराज आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । पर आप मुझे एसा गस्ता बतलाये कि मैं किसी प्रकार से गुरु भक्ति करके अपने मनोरथ को पूर्ण कर सकू।
सूरिजी-जसा ! इसके लिये अनेक मार्ग हैं पर सबसे बढ़िया बात यह है कि तुम सब आगम लिखवा कर ज्ञान भंडार में स्थापन कर दो कि भविष्य में बड़ा भारी लाभ होगा। और यही सबसे उत्तम गुरुभक्ति है । दूसरे गुरु महाराज की आज्ञा धर्म प्रचार बढ़ाने की हैं उस ओर लक्ष । जैन मंदिर में अचार्यों की मूर्ति ]
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