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वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
तैयार हो गया है तो मैं सूरिजी के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवा लू । सेठ जी ने अपनी सेठानी की सलाह ली तो वह भी सेठजी से सहमत हो गई तब जसा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! यह जैन मंदिर तैयार हो गया है इसकी प्रतिष्ठा करवा कर हम लोगों को कृतार्थ बनाइये शेष जो कार्य रहा है वह मैं बाद में करवा लूंगा क्योंकि आप जैसे पूज्य पुरुषों का संयोग हमकों बार बार मिलना कहां पड़ा है ? इत्यादि ।
सूरिजी ने कहा जसा ! तू बड़ा ही भाग्यशाली है। धर्म के कार्य में क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिये । कारण, शास्त्रकारों ने कहा है कि 'श्रेयांसि वहु विघ्नानि' अतः 'धर्मस्तत्वरतागति' अर्थात् धर्मकार्य शीघ्र ही कर लेना चाहिये । दूसाग आयुष्य का भी तो क्या विश्वास है
शाह जसा ने चतुर शिल्पियों को बुला कर ९६ अंगुल प्रमाण की सुवर्णमय भगवान महावीर की मूर्ति बनवाई और इसके अलावा बहुत सर्व धातु और पाषाण की मूर्तियां भी बनवाई।
शाह जसा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! मेरी इच्छा है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी की भी एक मूर्ति बनवा कर इसी मंदिर में एक देहरी बना कर स्थापन करवाऊ । कारण हम लोगों पर सबसे पहला उपकार उन पूजा परमोपकारी आचार्य महाराज का ही हुआ है।
सूरिजी ने कहा जसा ! उपकारी पुरुषों का उपकार मानना कृतज्ञ पुरुषों का सब से पहिला कर्तव्य है पर उपकार इस प्रकार से माना जाय कि आगे चल कर अपकार का कारण न बन जाय । तीथङ्करों के मन्दिर में प्राचार्यों की मूर्ति स्थापन करनी और तीर्थङ्करों की पूजा की तरह से प्राचार्थों की पूजा होनी यह एक तीर्थङ्करों की आरतना है । कारण, तीर्थङ्करों के पांच कल्याणक हुये वैसे आचार्यों के पांच कल्याणक नहीं हुथे हैं । आचार्यों के केवल एक दीक्षा कल्याणक हुआ है फिर उनको जल चन्दनादि की पूजा किस कल्याणक की कराई जा सके । दूसरा भाव तीर्थङ्करों की पुष्पादि से अग्रपूजा होती थी अतः स्थापना तीर्थङ्करों की पुष्पों से अग्रपूजा कर सकते हो पर भाव आचार्य कि पुष्पादि से पूजा होना किसी शास्त्र में नहीं कहा है तो स्थापनाचार्य की पुष्पादि से पूजा कैसे की जा सकती है ? जसा इस बात को तुम दीर्घ दृष्टि से विचार कर सकता है-कि भविष्य में इस भक्तिका क्या नतीजा होगा
दूसरे तीर्थकर निश्चय मोक्षगामी हैं तब आचार्य के लिए भजना है । आचार्य को तो भल्याभव्य का भी निश्चय नहीं है वे तीर्थकरों की बराबर कैप्से पूजा सकते हैं। भले कई प्राचार्य अतिशय प्रभाविक हों या तीर्थकरों द्वारा उनका निर्णय भी हो जाय कि यह मोक्षगामी हैं जैसे रत्नप्रभसूरि का हुआ है पर तीर्थंकरों के मन्दिर में आचार्यों की मूर्तिये स्थापन कर पूजा करने की प्रवृत्ति चल पड़ी तो भविष्य में जितने आचार्य होंगे उनके अनुयायी अपने २ आचार्यों की मूर्तियाँ तीर्थंकरों के मन्दिर में स्थापन करेंगे तो मन्दिर आचार्यों की मूर्तियों से ही भर जायगा । इतना ही क्यों पर इसमें रागद्वेष इतना बढ़ जायगा कि वे आपस में अपने अपने आचार्यों की मूर्तियां तीर्थङ्करों के मंदिर में स्थापन करने के लिये लड़ेगे झगड़ेंगे और कर्मक्षय करने के स्थान कर्न बन्ध के स्थान बन जायेंगे और उनके पक्षपाती श्राहवर्ग भी इसी मार्ग का अनुकरण करेंगे । अतः धर्म के स्थान अधर्म की वृद्धि होगी इसलिये मैं आपके विचार से सहमत नहीं हो सकता हूँ।
जसा ने कहा पूज्य गुरुदेव श्रापकी दीर्घ दृष्टि के विचार मेरी समझ में आगये हैं पर एक शंका और भी पूंछ लेता हूँ कि कि सिद्धचक्रजी के गटा में नौपद की स्थापना है उसमें आचार्य उपाध्याय और साधु इन तीनों की भी स्थापना है और वे तीर्थङ्करों के साथ पूजे भी जाते हैं तो क्या वहाँ भी आशातना है ?
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