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________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की यदि किसी ने पूर्व भव में मुझे वचन दिया हो तो इस समय मेरी सहायता करे, इससे बचनबद्ध शक्रेन्द्र और चपरेन्द्र दो इन्द्र आये और कूणिक को बहुत समझाया कि एक तो तुम्हारा छोटा भाई और दुसरे नानाजी इत्यादि इस युद्ध में कुछ भी सार नहीं है पर अभिमान के गज पर चढ़े हुए कूणिक ने किसी की भी नहीं सुनी अतः वचनवद्ध होकर दोनों इन्द्रो ने कूणिक को मदद दी । पहिले दिन के युद्ध में एक हस्ती पर चमरेन्द्र और कूणिक सवार होकर युद्ध किया जिसमें ८४,००,००० आदमियों के प्राण गये। दूसरे दिन शक्रेन्द्र चपरेन्द्र और कूणिक एक दूसरे हस्ती पर सवार होकर युद्ध किया जिसमें ९६,००,००० श्रादमियों के प्राण गये । बस ! चेटक की सेना ठहर न सकी वे सब वैशालानगरी में जाकर नगरी के दरवाजे बन्द कर दिये । वैशाला में एक मुनिसुव्रतदेव का स्तूप था जिसके प्रभाव से कि कूणिक वैशाला को भंग नहीं कर सका और कई दिन सेना सहित नगरी के चारों ओर घेरा डाल कर पड़ा रहा । विहल्लकुमार रात्रि के समय अचानक हस्ती पर सवार होकर, कूणिक की फौज में आता था और बहुत सी फौज को करल कर चला जाता । जब कूणिक को इस बात का पता लगा तो उसने रास्ते में एक आड़ी खाई खुदा कर उसके अंदर आग लगा कर ऊपर से ढांकदी। दूसरे दिन जब विहल्ल कुमार श्रआया तो उसको यह मालूम नहीं हुआ परन्तु इस्ती को जातिस्मरण ज्ञान होने से वह जान गया और आगे पैर रखने से हस्ती रुक गया इस पर बिहल्लकुमार ने अंकुश लगाते हुए कहा कि अरे हस्ती तेरे लिये इतना अनर्थ हुश्रा और तू इस समय आगे बढ़ने से क्यों रुक गया है ? इस पर हाती ने अपनी सूढ़ से विहल्लकुमार को एक किनारे रख कर आप आगे बढ़ा ज्यों ही वह भाग में ना पड़ा । जिसको देखते ही विहल्लकुमार समझ गया । वह हस्ती के लिये पश्चाताप करने लगा। इतने में आस पास के देवता विहल्लकुमार को उठा कर भगवान् महावीर के संमवसरण में रख दिया। बिहल्लकुमार ने भगवान महावीर से दीक्षा ले ली। देव रूपी हार देवता ले गये । हरती आग में जल करमर गया। जिस हार-हाथी के लिये करोड़ों के प्राण गये उन दोनों वस्तुओं की समाप्ती भी हो गई । तब भी कूणिक वहाँ से नहीं हटा । कूणिक ने एक निमितिया को पूछा कि मैं विशाला नगरी को भंग कैसे कर सकूगा । उसने कहा कि इस नगरी में मुनिसुव्रतदेव का स्तूप है। इसके गिरने पर ही नगरी का भंग हो सकेगा। इस पर एक वेश्या द्वारा गुरु प्रत्यनिक साधु को बुला कर वेशाला के स्तूप को गिरवा करके वैशाला का भंग करवाया । गजा चेटक एक कुवा में गिर रहा था उसको देवता उठा कर देव भवन में ले गये । वहाँ १५ दिन का अनशन करके स्वर्ग चला गया । कूणिक ने वैशाला का राज अपने देश में मिला लिया । राजा चेटक के पुत्र शोभनराव था। जो अपनी सुसराल कलिंग की राजधानी कंचनपुर में चला गया कलिंग पति के पुत्र न होने से आपने अपना राज शोभनराय को दे दिया। इस युद्ध के सम्बन्ध की एक बात भगवती सूत्र ७ उद्देश्य ९ में आती है वह ऐसी है कि वह एक समय गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवान् ! बहुत से लोग कहा करते हैं कि युद्ध में लोग वीरता से मरते हैं वे सब देवता के रूप में उत्पन्न होते हैं। भ० महावीर ने उत्तर दिया कि यह बात मिथ्या है। हाँ किसी जीव के शुभाध्वशय रहता है वह मर कर देव हो सकता है। हे भगवान् ! चेटक कूणिक के युद्ध में लाखों मनुष्य मरे हैं उनकी क्या गति हुई होगी ? कूणिक के युद्ध में इन्द्रों की सहायता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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