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________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाममार्गियों के आसन चलायमान होने लगे और उनके दिल में अनेक प्रकार की तरंगें भी उठने लगी कि ऐसा न हो कि मरुधर की भांति यहां भी इन पाखण्डियों के अड्डे जम जायं; इस बात का पहिले से प्रबन्ध करना चाहिये । अतः सबसे पहिले गजा और राजकुवर कक्क को सममा कर अपने पक्ष में पके कर लेना चाहिये कि वे उन पाखण्डियों के पंजे में फंस नहीं जायं इत्यादि । राजकुंवर के ध्यान में तो था कि महात्माजी के खानपान वगैरह की व्यवस्था करनी है, पर वह राजकार्य में ऐसे फंस गया कि उनको समय ही नहीं मिला । फिर शाम के समय बहुत देरी से याद आया तो उन्होंने बहुत ही अफसोस के साथ अपनी भूल के लिये पश्चाताप किया कि मेरे विश्वास पर आये हुये महात्मा भूखे प्यासे पड़े होंगे, फिर भी वह रात्रि के समय वहां जा नहीं सका। सुबह आवश्यकादि कार्यों से निवृत्त हो बड़े ही समारोह से राजकर्मचारीगण और प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ राजा, राजकुवर, मंत्री वगैरह उस बगीचे की ओर चले कि जहां महात्माजी ठहरे थे । राजा को जाते हुए देख कई लोगों ने गतानुगति युक्ति के वश हो राजा का अनुकरण किया तो कई एक कौतूहलवश राजा के साथ हो चले, कई एक ने सोचा कि अगर अपने न जायेंगे और राजा को मालूम पड़ेगी तो अपनी दुकानदारी ही उठ जायगी, इस भय से, तो कईएक ने सोचा कि देखें, इन सेवड़ों-साधुओं की क्या मान्यता है और कैसा उपदेश देते हैं ? इत्यादि विविध कारणों को श्रागे रख कर सारे नगर के लोगों ने राजा का अनुसरण किया और शीघ्र ही राजा राजकुंवर मंत्री आदि अपनी प्रजा के साथ उस बगीचे में सूरिजी के सन्मुख आकर उपस्थित हुए । वंदन नमस्कार कर राजा अपने उचित स्थान पर बैठा गया और सभी को शांतिपूर्वक बैठ जाने का इशारा किया। सर्वत्र शांति का साम्राज्य छाया हुआ था, उस समय राजकुवर ने उठ कर सूरिजी से नम्रतापूर्वक कहा कि हे प्रभो ! मैं आपका बड़ा ही अपराधी हूँ। क्योंकि मेरे ही श्राग्रह से आप इतनी तकलीफ उठा कर यहां पधारे और मैंने आपकी तनिक भी खबर न ली । इस नगर में कोई साधारण मुसाफिर भी भूखा प्यासा नहीं रहता है और आप महात्मा हमारे मेहमान-अतिथि होते हुये भी क्षुधा-पिपासा पीड़ित रात्रि निकाली, यह बड़े अफसोस की बात है, इस हेतु मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। सूरिजी गजा और श्रोतावर्ग की ओर इशारा करके हस्तवदन और शीतल दृष्टि से मुसकराते हुये बोले कि कुंवरजी ! श्राप जरा भी दिलगीर न हों, आपकी तरफ से अपराध नहीं हुआ, परन्तु मुनियों के ठहरने लायक सुन्दर मकानादि की प्राप्ति होने से उलटा सत्कार हुआ है । देखिये यह सब मुनि लोग तपस्वी हैं, इसलिये इनको भोजन की आवश्यकता नहीं है । इतने पर भी आपके दिल में किसी तरह का रंज होता हो तो आपको हम विश्वास दिलाते है कि साधु लोग सदा क्षमाशील होते हैं । अतः उनकी तकलीफ की संभाघना करना यह व्यर्थ है । हे राजेन्द्र! आपकी धर्म भावना पर हमें खूब संतोष है। और अधिक हर्ष तो इस बात का है कि आप सज्जन धर्म-श्रवण निमित्त यहां पर उपस्थित हुये हैं । यह हमारा व्यापार है और इसी कार्य के लिये हम लोगों ने अपना सारा जीवन अर्पण कर दिया है । अपनी कार्यसिद्धि के लिये अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुये हम लोग इससे भी विकट भूमि में परिभ्रमण कर सकते हैं इत्यादि; समाधान के पश्चात सूरिजी महाराज ने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया : सुज्ञ श्रोतागण ! इस असार एवं अपार यानी अनादि अनंत संसार में जितने चराचर जीव हैं, यह सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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