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________________ आचार्य यक्षरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १४ 1 अपने २ पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार सुख-दुःख भोग रहे हैं। शुभ कार्य करने से सुख की प्राप्ति और अशुभ कार्य करने से दुःख की प्राप्ति भवान्तर में अवश्य होती है। इस मान्यता में किसी शास्त्र के प्रमाण की भी श्रावश्यकता नहीं है । कारण, कि आज चर्म चक्षु वाले मनुष्य भी उन शुभाशुभ कर्मों का प्रतिबिम्ब रूप फल प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि एक राजा, दूसरा रंक, एक सुखी, दुसरा दुःखी, एक धनी दूसरा निर्धन, रोगीनिरोगी, ज्ञानी अज्ञानी, अपुत्रीय- बहुपुत्रीय, सद्गुणी- दुगुखी, सुन्दररूपवान- बदस्वरूप, बुद्धिमान-निर्बुद्धि, यश- अपयश, कीर्ति- अपकीर्ति वगैरह । एक का हुक्म हजारों मान्य करते हैं तब दूसरा हजारों की गुलामी उठाता है। एक पालकी में बैठ सैर करता है, दूसरा उसे अपने कंधों पर उठा कर दुःख का अनुभव कर रहा है । यह सब पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म का फल प्रत्त्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है । प्यारे आत्मबन्धुओ ! जो मनुष्य बबूल का बीज बोता है वह मनुष्य फल भी वैसा ही पावेगा, न कि अन फल; और जो मनुष्य श्राम्रवृक्ष का बीज बोता है उसको आम्रफल की ही प्राप्ति होती है न कि बबूल की । श्रर्थात् जैसा बीज बोवेगा वैसा ही फल पावेगा । इस न्याय से जो बुद्धिमान लोग मनुष्यभव धारण कर शुद्ध देव गुरु और धर्म पर अटल श्रद्धा रखते हैं और सेवा भक्ति उपासना, सत्संग, पवित्र अहिंसाधर्म का प्रचार क्षमा, दया, शील, संतोष, ब्रह्मचर्य्य, दान पुण्य प्रभु भजन और परोपकारादि पुण्य कार्यों से शुभ कर्मों का संचय करता है उन जीवों को भवान्तर में आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, आरोग्यपूर्ण शरीर, पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति, दीर्घायुष्य, देवगुरु धर्म की सेवा और अन्त में स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है, जिससे पुनः जन्म मरण का फेरा ही मिट जाता है । जो अज्ञानी जीव इस श्रमूल्य मनुष्य जन्म को धारण कर जीवहिंसा करता है, असत्य बोलता , चोरी, मैथुन, ममत्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, परनिन्दा, निर्दयता, शिकार एवं मांस-मदिरादि भक्षण करता है, कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की उपासना करता है, एवं दुर्जनों की संगति में रह कर अनेक विधि पाप कर्मों से अशुभ कर्म का संचय करता है, वह भवान्तर में घोरातिघोर नरक कुण्ड में जाकर चिरकाल तक महान भयंकर दुःखों का अनुभव कर वहाँ से फिर पशु श्रादि दुःखमय चौरासी लाख योनियों में अट माल की तरह परिभ्रमण करता है। इसलिये विद्वानों को स्वयं विचार करना चाहिये कि मैंने अनेक भव भ्रमण करते हुये बड़ी दुर्लभता से यह मनुष्य देह पाया हूँ तो अब मुझे क्या करना चाहिये और मैं क्या कर रहा हूँ ? क्या मैंने अपनी जिन्दगी में कुछ भी सुकृत पुन्य कार्य किया है ? या खाना-पीना, मौज मजा, भोग विलास, हँसी ठठ्ठा, खेल कूद और तृणभक्षी निर्दोष प्राणियों के प्रारण लूटने में सारी जिन्दगी व्यतीत कर दी है ? मैंने अपने साथ पूर्वभव से कितना पुन्य संचय कर लाया हूँ ? अथवा जिन पाप कर्मों द्वारा धन वैभव प्राप्त कर क्क्रुटुम्ब का पोषण कर रहा हूँ। परन्तु जब मैं यहाँ से परभत्र की ओर विदा होऊँगा तब यह राजपाट, लक्ष्मी, पुत्र कलत्र, पिता-माता, भाई-बहिन श्रादि कुटुम्ब वर्ग में से कोई मेरा साथ देगा ? या परभव में मेरे पर दुःख गुजरेंगे उस समय कोई मेरा सहायक होगा ? या मैं अकेला ही दुःख सहन करूंगा ? इत्यादि विचार करना बहुत श्रावश्यक है । क्योंकि "बुद्धेः फलं तत्व विचारणं च बुद्धि का फल वही है कि मनुष्यों को तत्व का विचार करना चाहिये । सज्जनो ! यह भी याद रखना चाहिये कि यह सुअवसर यदि हाथ से चला गया तो पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी मिलना मुश्किल है । दुःखं पापात् सुखं धर्मात् सर्वशास्त्रेषुसंस्थितिः न कर्त्तव्यमतः पापं कर्तव्यो धर्म संचयः । धर्म न कुरुषे मूर्ख ! प्रमादस्य वशंवदः कल्येहित्रास्यतेकस्त्वां नरके दुःख विह्वलम् || Jain Education International For Private & Personal Use Only ww Porary.org.
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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