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वि० पू० ३८६ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
महानुभावो ! महाऋषियों ने जिस समय वर्णव्यवस्था की शृंखलना री थी उस समय शौर्यपुरुषार्थ द्वारा जनता की एवं सर्व चराचर प्राणियों की सेवा रक्षा करने का खास भार क्षत्रियों पर रख छोड़ा था । कारण, कि उनको पूर्ण विश्वास था कि यह क्षत्रिय जाति दया का दरिया व उच्च विचारज्ञ और अपने पराक्रम द्वारा जनता की रक्षा-सेवा करने योग्य है परन्तु आज सत्संग और सदुपदेश के अभाव से उन क्षत्रीवीरों के हृदय ने पलटा खाया एवं-कुसंग मिथ्याउपदेश से ऐसे खराब संस्कार पड़ गये कि वह अपने क्षत्रिय धर्म को ही भूल बैठे हैं। जो लोग गरीब, अनाथ, और मूक प्राणियों के रक्षक कहलाते थे वे ही आज भक्षक बन गये हैं। जिस शौर्य और पुरुषार्थ द्वारा क्षत्रिय लोग संपूर्ण विश्व का रक्षण करते थे
आज वे ही लोग निरपराधी मूक प्राणियों के खून से नदियां वहा रहे है इत्यादि । इसमें केबल क्षत्रियों का ही दोष नहीं है परन्तु विशेष दोष मिथ्या उपदेशकों का है। कारण, जिन महर्षिों ने संपूर्ण जगत की शांति के लिए जिनके हाथ में जपमाला दी थी कि वह निःस्वार्थ भाव से पूजा, पाठ, जप, जाप, स्मरणद्वारा सारे संसार में शांति का साम्राज्य बना रखेगा परन्तु उन पर कुदरत का कोप इस कदर हुआ कि वह स्वार्थके कीचड़ में फंस कर जपमाला के स्थान उनकर हाथों में तीक्षण छुरा धारण कर निर्दय दैत्य की भांति विचारे मूक प्राणियों के कंठ पर चलाने में अपना कर्त्तव्य समझने लगे। इतना ही नहीं परन्तु उस भयंकर पाप की पुष्टि के लिये नया विधि विधान बना कर उस पाप से छुटकारा पाने का मिथ्या प्रयत्न भी किया है। अधिक दुःख तो इस बात का है कि क्षत्रिय लोग उनके हाथ के कठपुतले बन गये इस हालत में वे पाखंडी लोग प्रणियों के रक्त से यज्ञवेदी को रंग कर अपने नीच स्वार्थों की पूर्ति करते हुये धर्म के नाम से जनता कों गहरी खाई में धकेल दें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अगर वह धर्म के ठेकेदार धर्म के नाम पर अपने खुद के शरीर में से एक बूंद रक्त की निकाल कर अपने इष्टदेव की पूजा में चढ़ाते तो उसे मालूम होता कि प्राणियों की घोर हिंसा करने में धर्म है या महान पातक है?
हे राजन् ! शिकार खेलना, मांस भक्षण करना, मदिरादि का पान करना और व्यभिचार सेवन ये चारों अधर्म कार्य खास कर के नरक में ले जाने वाले है । यदि आप अपने आत्मा का इस भव में और पर भव में कल्याण चाहते हो तो सब से पहिले इनका त्याग करना चाहिये कारण इन अधर्म कार्यों के होते हए कोई भी जीव धर्म का अधिकारी नहीं बन सकता है । श्राप नीतिज्ञ हैं आप में विचार करने की शक्ति है, आप हृदय पर हाथ रख कर सोच सकते हैं कि जहाँ तक लोक व्यवहार ही शुद्ध नहीं हैं वहाँ तक कोई भी मनुष्य धर्म समझने का अधिकारी कैसे बन सकता है क्योंकि धर्मकी भूमि शुद्धाचार है । पहिले सदाचार रूपी भूमि शुद्ध नहीं है तो उसमें धर्मरूपी बीज कैसे बोया जावे ? अगर ऐसी अशुद्ध भूमि में वीज बो भी दिया जाय तो उसका फल क्या ? अतः मैं आप सब सज्जनों को खूब जोर देकर पूर्ण विश्वास के साथ कहता हूँ कि इन चारों दुराचारों को इसी समय प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग कर दें. इसी में ही आपका हित-सुख-कल्याण है।
श्राचार्य श्री के प्रभावशाली व्याख्यान का असर जनता के अन्त करण पर इस कदर हुआ कि उन घृणित दुराचार से दुनियाँ का दिल एक दम हट गया। बस, फिर तो वीरों के लिए देरी ही क्या थी? "कर्मेशूरा वह धर्म शुरा" इस युक्ति को चरितार्थ करते हुए राजा-प्रजा प्रायः उपस्थित सर्व सजनों ने प्रतिज्ञा पूर्वक हाथ जोड़ कर कह दिया कि हे दयानिधि ! आज पर्यन्त हम अज्ञान अन्धकार में रह कर दुराचार का सेवन कर रहे थे परन्तु आज आप श्री के उपदेश रूपी सूर्य किरणों ने हमारे अन्तःकरण पर इस कदर प्रकाश
Haryainm....
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