SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 548
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १५३ नगरी में एक विराट् सभा की जिसमें हजारों साधु साध्वियों और लाखों श्रावक उपस्थित हुए आचार्यश्री ने पूर्वाचार्यों का परमोपकार, महाजन संघ की महत्वता, और देशोदेश में विहार करने का लाभ खूब ही श्रोजस्वी भाषा से विवेचन कर समझाया अन्त में आचार्यश्री ने यह फरमाया कि इस समय जैन धर्म पर दृढ़ श्रद्धा के लिये जैन मंदिर और तत्त्वज्ञान फैलाने के लिये विद्यालयों की जरूरत है और जैन मुनियों को देशोदेश में विहार कर, जैन धर्म का प्रचार करने की भी आवश्यकता है अतएव चतुर्विध श्रीसंघ यथाशक्ति इन कार्यों के लिए प्रयत्नशील बने और इन पवित्र कार्यों के लिए अपना सर्वस्त्र अर्पण कर भाग्यशाली बन, इत्यादि । आचार्यश्री के उपदेश का असर जनता पर अच्छा पड़ा कि वह अपने अपने कर्तव्य कार्य पर कमर कस के तैयार हो गए बड़ी खुशी की बात है कि उस जमाने में जैले आचार्यश्री धर्म प्रचार करने में कुशल थे वैसे ही उनके आज्ञावृत्ति चतुर्विध श्रीसंघ उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करने को तैयार रहते थे इसी एक दीली के कारण से ही वे मनोच्छित कार्य कर सकते थे । एक समय की जिक्र है कि एक शिवाचार्य अपने शिष्यों के साथ यज्ञ धर्म के प्रचार निमित्त चन्द्राती नगरी में आया । कि वहाँ राजा प्रजा सब जैनधर्मोपासक थे । पाठक पहले पढ़ चुके हैं कि श्रीमाल नगर के राजा जयसेन के पुत्र चन्द्रसेन ने इस नगरी को आबाद की थी और क्रमशः चन्द्रसेन-गुनसेन- अर्जुनसेन नभसेन का पुत्र रूपसेन उस समय वहाँ का राजा था। शिवाचार्य ने राजसभा में आकर कहा कि निकट भविष्य में इस नगरी पर बड़ी भारी आफत आने वाली है । अतः खास तौर पर राजा का कर्त्तव्य है कि जनता की शान्ति के लिये यज्ञ द्वारा देवताओं को बली देकर खुश करे इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है । मैं राजा प्रजा का शुभचिंतक हूँ कि आप लोगों को सावचेत कर दिया है, इत्यादि । मंत्री जिनदास ने कहा कि महात्माजी यह शान्ति का नहीं पर आफत बढ़ाने का उपाय है । हम लोग कर्म सिद्धान्त को मानने वाले जैन हैं। यज्ञ करवाना तो दूर रहा, पर बिना अपराध किसी जीव को तकलीफ़ देने में भी पाप समझते हैं, इत्यादि सुन कर शिवाचार्य अपने स्थान पर चला गया और अपनी विद्या द्वारा नगरी में कुछ उपद्रव करना शुरू किया कि जिससे कई भद्रिकों को क्षोभ होने लगा । राजा और मंत्री ने एक आमन्त्रण-पत्र लिखकर अपने योग्य पुरुषों को आचार्य सिद्धसूरि के पास भेजा उन्होंने सूरिजी के पास जाकर सब हाल निवेदन किया । बस, फिर तो देरी ही क्या थी, सूरिजी शीघ्र विहार कर चन्द्रावती पधारे। राजा प्रजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का खूब समारोह से महोत्सव किया । सूरिजी ने पधारते ही जिन मन्दिरों में स्नात्र महोत्सव करवाया जिसके प्रक्षालन का जल से सर्वत्र शान्ति हो गई। इतना ही क्यों, पर शिवाचार्य ने अपनी विद्याओं के अनेक प्रयोग किये पर उसमें वे निःसफल ही हुए । अतः शिवाचार्य चलकर आचार्यसिद्धसूरि के पास आया और कहने लगा कि महात्माजी ! आपके पास ऐसी कौन सी विद्या है कि मेरी कोई भी विद्या काम नहीं देती है ? अतः कृपा कर आपकी विद्या मुझे दीजिये बदले में मैं आपको अच्छी २ विद्या दूँगा सूरिजी ने कहा- महानुभाव ! ऐसी विद्याओं से आत्मा का कल्याण नहीं है, यदि आप जन्म मरण से मुक्त होना चाहते हो तो वीतराग प्रणित धर्म की शरण लेकर उसकी ही आराधना करो । इत्यादि इस प्रकार समझाया कि शिवाचार्य ने अपने शिष्यों के साथ सूरिजी के पास जैन-दीक्षा स्वीकार करली। इस प्रकार तो सूरिजी ने अनेक भव्यों का कल्याण किया था । Jain Education International For Private & Personal Use Only 339 www.jamnerbrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy