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________________ वि० पू० २१७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य श्री सिद्धसूरि मरुभूमि में विहार करने वाले मुनियों का उत्साह बढ़ाते हुए योग्य विद्वान मुनियों को पदवियों से विभूषित बना कर उनको अन्य प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा दे दी बाद आप श्रीमान् ने पूर्वाचार्यों की स्मृति रूप कई स्थानोंकी यात्रा करते हुए अनेक साधु साध्वीयों और श्राद्ध वर्ग के साथ श्री सिद्धगिरि की यात्रा की सौराष्ट्र में परिभ्रमण कर कच्छ की ओर पधारे कुछ समय तक कच्छ में विहार किया पश्चात् आपने सिंध प्रान्त में पदार्पण किया अर्थात् आपश्री बड़े ही दूरदर्शी थे जैसे आप नए जैन बनाने का प्रयत्न करते थे वैसे ही पहिले बनाए हुए श्रावकों और साधु साध्वियों की सारसंभार करना भी आप एक परमावश्यक कार्य समझते थे । इसलिए आपश्री ने कई अर्सा तक सिन्ध प्रान्त में विहार कर अपने श्रमण संघ के किए हुए कार्य पर प्रसन्न चित्त से धन्यवाद दिया और पारितोषिक रूप में कई योग्य मुनिवरों को पदवियों प्रदानकी बाद वहां से विहार कर पंचाल देश में पधार गए इस परिभ्रमण के दरम्यान आपने जैन शासन की अत्युत्तम सेवा की, यों तो आपने अपना जीवन ही धर्म प्रचार में व्यतीत कर दिया था । अन्त में आप विहार करते हुए उपकेशपुर पधार कर मुनिरत्न को अपने पद पर नियुक्त कर उनका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया तत्पश्चात आप श्रीमान् उपकेशपुर नगर में १५ दिन का अनशन कर समाधिपूर्वक स्वर्ग में अवतीर्ण हुए | भगवान पार्श्वनाथ की सन्तान परम्परा में उपकेशगच्छ के प्रारम्भ समय से आचार्यश्रीरत्नप्रभसूरि, आचार्यश्रीयक्षदेवसूरि, आचार्य श्रीकक्कसूरि आचार्यश्री देवगुप्तसूरि और आचार्यश्रीसिद्धसूरि एवं पांचों आचार्य महा प्रभाविक हुए और इन पांचों आचार्यों के नाम से ही आज पर्यन्त उपकेशगच्छ अविछन्नपने चल रहा है। १-मरूस्थल में आचार्य रत्नप्रभसूरि का नाम अमर है । आपका सरि पद समय वी० स० ५२-८४ २-मगधदेश में , यक्षदेवसूरि का नाम अचल है । , , , , ८४ -१२८ ३-सिन्धप्रान्तमें , कक्कसूरि का नाम अक्षय है। ,, ,,,,, १२८--१८२ ४-कच्छप्रांत में ,, देवगुप्तसूरि का नाम अटल है। ,, ,, ,, १८२-२२३ ५-पंचाल प्रांतमें ,, सिद्धसूरि का नाम अपार है। ,, इन महापुरुषों की बदौलत उनकी सन्तान ने पूर्वोक्त प्रान्तों में चिरकाल तक जैन धर्म को गष्ट्रीय धर्म बना रक्खा था, आज जो जैन जातियों जैनधर्म पालन कर स्वर्ग मोक्ष की अधिकारी बन रही है वह सब उन महान् प्रभावशाली आचार्यों के उपकार का ही सुंदर फल है । अतएव जैन समाज एवं जैन जातियों का कर्तव्य है कि अपने पर महान उपकार करने वाले पूज्याचार्यों के प्रति सेवा भक्ति प्रदर्शित करते रहें। सिद्ध वचन थे लब्धि उनके दशवाँ पाट दीपाया था । सिद्धसूरीश्वर नाम श्रापका बादी सुन घबराया था । लाखो जन को माँस छुड़ाकर अहिंसा धर्म चमकाया था ।। मरु आदि भू भ्रमण करके जैन झण्ड फहराया था। इति श्री भगवानपार्श्वनाथ के दशव पाटपर आचार्यश्री सिद्धसुरीश्वरजी महाराज प्रभाविकाचार्य हुए। + एक पट्टावला में सिद्धसूरि का स्वर्गवास लोहाकट में होना लिला है पर वे सिद्धसूरि अन्य थे जिन के लिए आगे-- तस्यपट्ट सिद्धसूरीगुरु रासिद् धियांनिधिः वीक्ष्ययात्सूक्ष्मःदर्शित्वं कविःस्वक्षिरुषाऽकृषत् ॥ नामभिःपञ्चभिर्गच्छः पञ्चननइवाऽऽनवे, भासमानोऽभिनत् वादि कुम्भिकुम्भस्थलान्ययम् ॥ 3३२ Jain Education national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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