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________________ आचार्यरत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८३ ११ प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ( द्वितीय ) तत्पट्टे तु गुणग्रणी स्थिति करो रत्नप्रभो नामधृक् । पञ्चाम्बी बहु सौरसेने मरुवत्मान्तेष्वभ्राम्यत्सुधीः॥ तुल्यस्तेन स एव केवल मिहासीद्धर्मो निष्टो महान् । आ पाञ्चालमसौ चकार भ्रमणं बंगं च पूर्व प्रति ॥ (प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज बड़े भारी धर्म प्रचारक एवं महान तपस्वी प्राचार्य हुए। आप श्रीमान् उपकेशपुर के राजा उत्पलदेव की वंश परम्परा के एक वीर क्षत्री थे " आप अपनी तारुण्यावस्था में राज लक्ष्मी का त्याग कर आत्मीय वैराग्य के साथ श्राचार्य 9 सिद्धसूरीश्वरजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य श्री ने दीक्षा देकर आपका नाम मुनि रत्न रक्खा था । दीक्षा लेने के पश्चात् आप सूरिजी की खूब भक्ति एवं विनय करके जैनागमों के स्याद्वाद सिद्धानादि का अभ्यास किया इतना ही क्यों पर उस समय स्वमत परमत के सामयिक साहित्य का भी आपने अध्ययन कर लिया था यही कारण था कि आप विद्वानों की पंक्ति में सर्वोपरी समझे जाते थे आप यह भी समझते थे कि पूर्व संचित कर्म बिना तप के क्षय होना असंभव है अतः श्राप श्री ने कठोर तपश्चर्य करना प्रारम्भ कर दिया कभी कभी तो आप मासखामण के भी पारण करते थे पर छट छट तप करने की तो आपने अपने जीवन पर्यन्त प्रतिज्ञा करली थी और इन कठोर तपश्चर्य से आपके अन्दर आत्मीय गुणों का इस प्रकार प्रादुर्भाव हुए कि अनेक लब्धियें और सरस्वती एवं लक्ष्मी देवियों स्वयं वरदायी बन आपकी आज्ञा का पालन करती थी यही कारण था कि अनेक राजा महाराजा ही क्यों पर कई देवी देवता भी आपके चरण कमलों की सेवा में उपस्थित रहते थे। आपश्री न्याय व्याकरण तक छन्द काव्यादि साहित्य के इतने भारी विद्वान थे कि आपकी तर्क एवं युक्तियों के सामने वादी सदैव नत मस्तक रहते थे इतना ही क्यों पर आप का नाम सुनकर ये दूर दूर भागते थे आपश्री का तप तेज और प्रखर प्रभाव को देख जनता प्रथम रत्नप्रभसूरि को ही हर समय याद करती थी। श्राचार्य सिद्धसूरि एक समय यह विचार कर रहे थे कि अब मेरी वृद्धावस्था है तो मझे चाहिये कि मैं मेरे अधिकार को किसी योग्य साधु को देकर गच्छ नायक बनाऊं। ठीक उसी समय सच्चायिक देवी पाकर प्रार्थना की कि प्रभो ! आप विचार क्या करते हो आपके हस्त दीक्षित मुनि रत्न सर्व गुण सम्पन्न और आप श्री के पद के लिये सब तरह से योग्य है । अतः श्राप उपकेशपुर पधारें और मुनिरन को अपने उत्तराधिकारी बनावें । इस पर सूरिजी ने कहा ठीक है देवीजी ! मेरी भी यही इच्छा है और समय आने पर मुनिरत्न को ही सूरि बनाया जायगा । देवी सूरिजी को बन्दन कर चली गई। सूरिजी क्रमशः विहार करते हुए उपकेशपुर की ओर पधारे । आचार्य श्री के शुभागमन से उपकेशपुर के राजा प्रजा ही क्यों पर आस पास के लोगों में भी खूब ३३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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