________________
आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
४२
Jain Education International
[ ओसवाल संवत् १५३
१० - प्राचार्य श्रीसिद्धसूरि ।
आचार्यस्य सुसिद्धसूरि विदुषः पाण्डित्यमाख्या तृकः । पाञ्चाले भ्रमणं विधाय बहुधा जैनीय देवालयान् ॥ यः संस्थाप्य तु भासमान बहुलां कोर्ति दधौ सुस्थिराम् । धन्योऽयं कमनीय कार्य कुशलो वन्दे च बन्द्य' प्रभुः ॥
चार्यश्री सिद्धसूरिजी महाराज बड़े ही प्रभाविक आचार्य हुये आप श्रीमान् चन्द्रपुरी नगरी के राजा कनकसेन के लघुपुत्र थे कीशोरवय में हो सिद्धार्थ नामक वेदान्ती आचार्य के पास दिक्षित हुए थे आप बाल ब्रह्मचारी और अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे, सत्य के संशोधक थे. धर्म के जिज्ञासु थे, मोक्ष के अभिलाषी थे, ज्ञान के प्रेमी थे, सरस्वती और लक्ष्मी दोनों देवियां परस्पर स्पर्द्धा करती हुई सदैव आपको वरदाई थी जैन दिक्षा स्वीकार करने
के
बाद आचार्य देवगुप्तसूरि की सेवा भक्ति से स्याद्वाद सिद्धान्त में भी आप बड़े ही प्रवीण हो गये थे धर्म प्रचार करने में तो आप बड़े ही समर्थ थे पाखण्डियों के पैर उखाड़ने में आप अद्वितीय वीर थे । आपश्री की वचनलब्धि से मनुष्य तो क्या पर देवता भी मुग्ध बन जाते थे। जैसे आप तेजस्वी थे वैसे ही यशस्वी भी थे आपश्री ने पंचाल देश में विहार कर अनेक भव्यात्माओं का उद्धार किया इतना ही नहीं पर जैन धर्म का बड़ा भारी
डा फहरा दिया था । वादी लोग आप से इतने घबराते थे जैसे कि सिंह गर्जना सुन हस्ती पलायन हो जाते है इसी भांति सिद्धिसूरि का नाम सुनते ही वे कम्प उठते थे अभिमानियों के मद गल जाते थे । आपश्री ने अनेक लोगों को दीक्षा दे श्रमण संघ में खूब वृद्धि की थी। सैकड़ों जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा और ज्ञानाभ्यास के लिये अनेक पाठशालाएं स्थापित करवाई थी आपश्री ने प्रन्थ निर्माण करने में भी कमी नहीं रक्खी थी, इत्यादि । सद्कार्यों से स्वपरात्मा का कल्याण कर अपना नाम इतिहास पट्ट पर अमर बना दिया था । पाठक वर्ग ! आप सज्जन इस बात को तो भली भान्ति समझ गये होंगे कि उस जमाने के जैनाचार्यों ने जैन धर्म के प्रचार के लिए किस किस विकट भूमि अर्थात् देश विदेश में विहार गा, कैसे कैसे संकट और परिश्रम उठाए, वादि प्रतिवादियों के साथ किस कदर शास्त्रार्थ कर " श्रहिंसा परमोधर्मः” का विजय डंका बजाया; जैनधर्म को विश्वव्यापी बनाने की उन महापुरुषों के हृदय में किस कदर बिजली चमक उठी थी, कारण उस समय मरूस्थल, कच्छ सिन्ध सौराष्ट्रादि प्रान्तों में व्यभिचारी वाममार्गियों का एवं यज्ञ वादियों का साम्राज्य वरत रहा था। पंचाल प्रान्त में असंख्य निरपराधी मूकप्राणियों की रौद्र हिंसामय यज्ञादि का प्रचार करने में वेदान्ती लोग अपना प्राबल्य जमा रहे थे, अंग बंग मगध वगैरह प्रान्तों में बौध लोग अपने धर्म का प्रचार नदी के पूर की भान्ति बढ़ा रहे थे, अगर उस विकट समय में जैनाचार्य एक ही प्रान्त में रह कर अपने उपासकों को ही मंगलिक सुनाया करते तो उनके लिए वह समय निकट ही था कि संसार भर में जैनधर्म का नाम निशान भी रहना मुश्किल हो जाता; पर जिनकी नसों में जैनधर्म का खून बहता हो वे ऐसी दशा को गुप चुप बैठकर कैसे देख सके ? हरगिज नहीं, कारण अधर्म को हटाने के लिए
For Private & Personal Use Only
३२९
www.jainelibrary.org