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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्षे ४८० उकेशवंशे जांगड़ा गोत्रे १०२५ उए ज्ञा० कोठारी गोत्रे १४१३ उकेशवंशे भणशली गोत्रे ४८८ उकेशवंशे श्रेष्टि गोत्रे १०९३ उ० ज्ञा० गुदेचा गोत्रे १४३५ उएसवंशे सुचिन्ती गोत्रे १२७८ उकेशज्ञा० गहलाड़ागोत्रे ११०७ उपकेश ज्ञाति डांगरेचा गोत्रे १४९४ उपकेश सुचंति १२८० उपकेश ज्ञातौ दूगड़गोत्रे १२१० उ० सीसोदिया गोत्रे १५३१ उ० ज्ञाती बलहागोत्र रांका १२८५ उएशवंशे चंडालिया गोत्रे १२५५ उपकेश ज्ञाति साधु साखायां १५१६ उपकेश ज्ञाती सोनी गोत्रे १२८७ उपकेशवंशे कटारिया गोत्रे १२५६ उपकेश ज्ञातौ श्रेष्टि गोत्रे १५८१ उपकेश वंशे श्रेष्टिगोत्रे इसी प्रकार आचार्य बुद्धिसागरसूरि एवं विजयेन्द्रसूरि के सम्पादित किये शिलालेख संग्रह की मुद्रित पुस्तकों में उपकेशवंश के प्रमाण तथा और भी अनेक शिलालेखों में ओसवाल जातियों के आदि में उपकेशवंश का प्रयोग हुआ है पर यहां पर तो केवल नमूने के तौर थोड़े से शिलालेखों को नम्बर के साथ उद्धृत किये हैं ।* जिस प्रकार ओसवालों की जातियों के साथ उपकेशवंश का प्रयोग हुआ है इसी प्रकार पोरवालों के साथ प्राग्वटवंश तथा श्रीमालियों के साथ श्रीमाल वंश एवं श्रीमाली जाति का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अन्दर ओसवालों की प्रत्येक जातियों के आदि में उपकेशवंश का प्रयोग देख कर आपको इतना तो सहज ही में ज्ञात हो जायगा कि पूर्वाचार्यों का हृदय कितना विशाल था कि उन्होंने अपने या दूसरों के बनाये हुये जैनों की तमाम जातियों को उपकेशवंश में शामिल कर दी थीं। कारण, वे अच्छी तरह से समझते थे कि ओसवाल जाति की शुरुआत उपकेशपुर से ही हुई थी और शुरू से इस जाति का नाम उपकेशवंश ही था। इतना ही क्यों पर उन दूरदर्शी आचार्यों ने शुरू से महाजनसंघ की स्थापना करने वाले प्राचार्यश्रीरत्नप्रभसरीश्वरजी महाराज का सन्मान एवं सत्कार भी किया है। महाजन संघ, उपकेशवंश और ओसवाल जाति की मूल व्याख्या के पश्चात् अब इस जाति की उत्पत्ति के समय के विषय में जितने प्रमाण मुझे मिले हैं उनको तीन विभागों में विभक्त कर दिया है १-विभाग में पट्टावलियों के प्रमाण २- वंशवलियों के प्रमाण ३-ऐतिहासिक प्रमाण। इनके अलावा कई विद्वानों की सम्मतिऐं और जनाचार्य एवं मुनिवरों के लेखों को यथाक्रम आगे के पृष्टों में लिखने का प्रयत्न किया जायगा। यहाँ हमारा अभिप्राय केवल इस बात को ही सिद्ध करने का था कि उएश-उकेश-उपकेश शब्द जैनजातियों के साथ सर्वत्र व्यवहृत हुआ है। अतः उपरोक्त शिलालेखों के केवल उन्हीं शब्दों को नम्बरों के साथ दे दिया है क्योंकि समय का निर्णय तो हम आगे चल कर करेंगे। Jain EduCon International For Private & Personal Use Only www१३७ary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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