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________________ १५ e नहीं किया वरन् कार्य भी शुरू कर दिया। और कोई ६० फार्म अर्थात् १००० पृष्ठ और ४३ चित्रों के साथ प्रथम विभाग जें छः प्रकरण का एक खण्ड सादड़ी श्रीसंघ की द्रव्य-सहायता से मुद्रित करवा दिया। जिसको जैन समाज ने बहुत हर्ष एवं उत्साह के साथ अपनाया और द्वितीय खण्ड की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगी । किन्तु प्रथम खण्ड के पश्चात् काय' इतना शिथिल पड़ गया कि जिसको पुनः हाथ में नहीं लिया गया। इसका कारण एक तो मैं अकेला था दूसरा जैन साधुओं की दैनिक क्रिया व भ्रमण करना और व्याख्यान देना, चर्चादि करना; दूसरी और भी छोटी बड़ी कई पुस्तकें छपवाने में समय निकलता गया एवं कुछ अवस्था भी वृद्ध होती गई और बड़ा काम हाथ में लेने में कुछ आलस्य प्रमादों का भी आक्रमण होजाना संभाविक था । कुछ भी हो, किन्तु उस छुटे हुए काम को पुनः हाथ में न ले सका । इस समय में बहुत से सज्जनों के पत्र भी आये । खेर, जब हम निश्चय पर आते हैं तो यही संतोष होता है कि जब जो काम बनना होता है तब ही बनता है । इतना होने पर भी न तो मैं उस काम को भूल गया और न मेरा उत्साह ही कम हुआ । सदैव मेरा यही विचार रहता कि समय मिलने पर अधूरा रहा ग्रन्थ अवश्य पूरा करना है। इतने समय के विलम्ब में एक लाभ अवश्य हुआ कि जो पहिली सामग्री थी उसमें अधिकाधिक बृद्धि ही होती गई । कारण कि कई ग्रन्थ पढ़ने से एवं जहां गया वहीं के ज्ञान भण्डार देखने से, कुल गुरुओं के मिलने से, उनके पास की वंशावलियाँ एवं बहुत सी ख्यातें देखने से प्रमाणों एवं नई २ बातों का संग्रह करने में मुझे बहुत अधिक सहायता मिलती रही । पुनः कार्यारम्भ और विचारों का परिवर्तन जब वि० सं० १९९४ का मेरा चातुर्मास सोजत शहर में हुआ और वहां पर मेरे शरीर में बीमारी होगई, एक दम शरीर कमज़ोर होगया। एक दिन मकान से नीचे उतरता था तो चक्कर खाकर भूमि पर गिर गया । कुछ सावधान हुआ तो यह दिल में आई कि आयुष्य का कुछ निश्चय एवं विश्वास नहीं । यदि यह प्रारम्भ किया गया कार्य्यं अधूरा रह गया तो मेरे पीछे कोई व्यक्ति इस कार्य्यं को शायद ही पूरा कर सके । अतएव इतनी सामग्री जो एकत्र की है वह व्यर्थ सी हो जायगी । इसलिये अब छोटी छोटी पुस्तकें छपवानी बन्द कर इसी कार्य्यं को पूरा कर देना ज़रूरी है । जब तबियत सुधर गई तो मैंने कापरड़ा तीर्थ जैसे निर्वृत्ति के स्थान में पुन: अधूरा काम हाथ में लिया । पर साथ ही यह भी विचार हुआ कि "जैन जाति महोदय" प्रथम खण्ड प्रकाशित हुए कोई ९-१० वर्ष हो गये । वे पुस्तकें किन किन के पास पहुँची हैं और अब लिखे जाने वाले ग्रन्थ किन किन को मिलेंगे । अतः पहले वाले को अब छपने वाले ग्रन्थ नहीं मिलेंगे तो दोनों ही अधूरे रह जायेंगे । इसलिए अब शुरु से ही क्यों न लिखा जाय ? कि जिस किसी के पास जायगा तो वहाँ पूरा ग्रन्थ ही जायगा । जब मैंने मेरे परामर्शदाताओं से सलाह ली तो वे भी मेरे से सहमत हो गये । अतः मैंने यह निर्णय कर लिया कि इस ग्रन्थ को शुरू से ही छपवाना और पूरा छप जाने पर ही इसको वितीर्ण करना उचित होगा । यद्यपि कई सज्जनों ने यह भी आग्रह किया जैसे जैसे इसके भाग निकरते जांय वैसे वैसे ही ग्राहकों की दे दिये जावें । इसमें ग्रन्थ छपाने में, लिखाने में, खरीदने एवं द्रव्य की सहायता में सुविधा रहेगी; किन्तु कई सज्जनों ने इसमें पहली वाली अव्यवस्था की आपत्ति की और सम्पूर्ण ग्रन्थ छपने पर ही प्रसिद्ध करने का विचार ठीक समझा और वैसा ही निर्णय किया तथा संस्था ने भी वही स्वीकार कर लिया । ग्रन्थ का नाम-करण पहले इस विषय का जो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका थ उसका नाम " जैन जाति महोदय" रखा गया था । साधारणतः इस नाम पर यही भान होता था कि इसमें जैन जातियों का ही इतिहास होगा ? यह अब इस ग्रन्थ का विषय बहुत विशाल कर दिया। कारण कि इसमें केवल जैन, जातियों का ही इतिहास नहीं वरंच भ० पाव नाथ की परम्परा के सम्प्रति समय तक ८४ पट्टधर हुए हैं उन सब का सामग्री के अनुकुल विस्तृत इतिहास एवं प्रत्येक पट्टधर के शासन से जैन धर्म सम्बन्धी जो कुछ कार्य्यं हुआ है, उन सब को सम्मिलित कर दिया है । जैसे म०पार्श्वनाथ के चतुर्थ पटटूधर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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