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________________ बहुत-सी जातियाँ अन्यान्यो गछ के आर्यों द्वारा प्रतियोधित हुई थी, उन सबको खतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोधित लिखकर उन जातियों के प्रति घो' अन्याय किया है। अतएव मैंने एक पत्र बीकानेर यतिजी को लिखा है कि आपने 'महाजन वंश मुक्तावली' किस आधार पर लिखी है आदि पर उत्तर के लिये बहत समय तक इन्तजारी करने पर भी पत्र का उत्तर न मिला । अतः मेरी इच्छा हुई कि मैं इस पुस्तक की समालोचना रूप एक पुस्तक लिखू किन्तु यह तो इतिहास का विषय था और इसमें केवल जैन पुस्तकों से ही काम नहीं चल सकता। किन्तु इसमें मुख्य तया भारतीय राजाओं के इतिहास की जरूरत थी। मेरे विचार से इन कठिनाइयों के कारण हो १५ वर्ष व्यतीत हो गये किसी ने भी कलम न उठाई । फलत: मैने इस विषय की सामग्री संकलित करनी आरंभ की। ज्यों ज्यों मैं इस विषय के इतिहास देखता गया त्या त्यों ही मेरा इतिहास के प्रति प्रेम बढ़ता गया। ___जब में नागौर से खजवाना आया तो वहां पर कई कँवलागच्छ की पौसालो वाले मिले। जिसमें भटरक देवगुप्त सूरि (प्रसिद्ध नाम यति मुकन जी) मिले और उन्होंने अपने पास का विस्तृत ज्ञान-भण्डार मुझे उपासरे बुला कर और उदारता भी बतलाई कि आप हमारे गच्छ के त्यागी साधु हो । इन पुस्तकों में से आपके जो उपयोग में आवें वे देखें व लिगावें। इनके अतिरिक्त महात्मा छोगमलजी तनसुखदासजी ने भी अपने पास की पुरानी वंशावलियाँ, ख्याते की बहियाँ भी बतलाई. जिससे मेरा उत्साह और भी बढ़ गया! किन्तु ऐसा ग्रन्थ लिखने में किसी निवृत्ति स्थान की भी अपेक्षा रहती है, कारण कि इतिहास का काम एकाग्र चित्त से ही बन सकता है। अतएव इसके लिए महात्मा तनसुखदासजी ने मेड़ता रोड फलौदी में ही रहने की सलाह दी और यह मेरे भी पसंद आई। तनसुखजी भी छः मास फलौदी रह गए और मैंने भी फलौदी रह कर साधन एकत्रित कर "जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक लिखी । परन्तु कहा है कि श्रेयांसि वह विनानि अर्थात् मैंने कोई पचास साठ ग्रन्थों का अवलोकन कर बड़े ही परिश्रम से मैटर तैयार किया था, किन्तु एक सज्जन जो अच्छा विद्वान था; उस मैटर को देखने के लिए ले गया और कह गया कि मैं इसे देख कर वज़रिये रजिस्ट्री आपको वापिस भेज दूंगा। भवितव्यता वश उस सजन पुरुष ने उस मैटर को कहीं खो दिया। जब मैटर खो जाने का समाचार मुझे मिला तो बहुत ही दुःख हुआ। किन्तु हतोत्साह न हो द्विगुणित उत्साह से उस पुस्तक को पुनः दोबारा लिखा और बीलाड़ा जाकर मुत्ताजी खीवराजजी की द्रव्य-सहायता से छपवा भी दिया। जब पुस्तक प्रकाशित हुई तो उसकी प्रशंसा पत्रों का मेरे पास ढेर लग गया। किन्तु हमारे कई भाइयों को इस पुस्तक से दुःख भी कम न हुआ। उन्होंने अत्यन्त हल्ला मचाया और असभ्य शब्दों द्वारा अपना परिचय दिया। लेकिन मेरा उत्साह कम न हुआ और मैं आगे बढ़ता ही गया, मैंने निश्चय किया कि ओसवाल जैसी विशाल एवं परोपकार प्रिय जाति का इतिहास अभी तक जनता के सामने नहीं रखा गया है । अतएव मैंने सामयिक पत्रों में लेख लिखकर जैन विद्वानों से कई वार अपील की किन्तु इस ओर किसी ने भी ध्यान न दिया। इतना ही नहीं, वरन् बहुत से सजनों ने तो मुझे ही पत्र लिखे कि गुजराती साधुओं में बहुत लिखे पढ़े विद्वान् साधु हैं, परन्तु वे जैन जातियों के इतिहास से इतने जानकार नहीं हैं कि जितने मारवाड़ के आप जैसे साधु हैं । कारण वर्तमान में जितनो जैन जातियाँ विद्यमान हैं इन सब की उत्पत्ति मरुधर प्रदेश से ही हुई है एवं इनके संस्थापक शुरू से ही उपकेश गच्छ-आचार्य रत्नप्रभसूरि आदि आचार्य ही थे। अतएव इन जातियों के विषय में जितना इतिहास उपकेशगच्छ वालों के पास मिलेगा उतना शायद ही दूसरों के पास मिल सके। इसलिये हम आपसे ही प्रार्थना करते हैं कि आप जैसे भी हो सके, जल्दी से एक ऐसा प्रामाणिक इतिहास लिखें कि जिसका जैन एवं जैनेतर जनता पर अच्छा प्रभाव पड़े। अतः इतनी योग्यता न होने पर भी जाति सेवा को लक्ष्य में रख कर इस कार्य को हाथ में ले लिया। इस कार के लिए सामग्री तो पहले से फलौदी के उपासर यतिवयं लाभसुन्दरजी, रायपुर तथा माणकसुन्दरजी राजलदेसर तथा-बीकानेर मेड़ता फलौदी नागौर केकोन चांगोद. पालसणी और खजवान के भट्टारक, देवगुप्तसूरि एवं महात्मा गासीरामजी छोगमलजी तनसुखदासजी द्वारा मिल गई थी। ___ "जैन जाति निर्णय" लिखने के पश्चात् मेरा अनुभव भी काफी बढ़ गया था। मैंने "जैन जाति महोदय" नामक ग्रन्थ को एक ऐसी वृहद् योजना तैयार की, जिसके अलग २ पच्चीस प्रकरण के चार खण्ड बना देने का निर्णय कर लिया। जिसमें केवल जैन जातियों का ही नहीं किन्तु जैन धर्म सम्बन्धी सम्पूर्ण इतिहास समावेश हो सके। यह केवल विचार ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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