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वि० पू० ५५४ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रहस्य रहा हुआ है और वह यह है कि यह पहिला ही पहिल मामला है । यदि मैं यहां अकेला कुछ कर भी यूँ तो इसे कौन जानेगा अतः मेरा इरादा है कि कल मैं अपने अन्तेवर पुत्र कुटुम्ब और अपनी प्रजा के साथ बड़े ही समारोह और भक्ति सहित आकर आपका वन्दन नमस्कार करूंगा।
केशीश्रमण-इसको सुन कर मौन साधन कर लिया क्योंकि साधुओं का ऐसा व्यवहार है कि जैनधर्म की विधि विधान के लिए उपदेश तो कर सकते हैं परन्तु आदेश के समय मौन व्रत रखते हैं।
प्रदेशी-उस रोज तो वहां से चला गया, बाद दूसरे दिन अपने पुत्र, रानियां, मन्त्री और नागरिक लोंगों के साथ चार प्रकार की सेना सहित बड़े ही समारोह के साथ आचार्यश्री को वन्दन करने के लिए आया जिसको देख कर और लोगों की भी जैनधर्म पर श्रद्धा होगई अर्थात् उन लोगों को भी आत्मकल्याण करने की रुचि हो गई।
__आचार्य केशीश्रमण ने राजा प्रदेशी आदि को बड़े ही विस्तार से धर्म उपदेश सुनाया जिसमें मुख्य विषय था आत्मकल्याण का जिसके लिए त्याग वैराग्य और तपश्चर्या आदि का करना आवश्यक बतलाया था
और दानादि के लिये विशेष जोर दिया था । इस उपदेश का असर राजा प्रदेशी वगैरह पर बहुत ही अच्छा हुआ । तदनंतर वे लोग आचार्य भगवान को वन्दन नमस्कार करके जाने के लिए तैयार हुए, उस समय केशीश्रमण ने मधुर वचनों से कहा कि हे नरेश ! आप रमणीक के स्थान अरमणीक न बन जाना।
प्रदेशी-हे प्रभो ! मैं आपकी परिभाषा में समझ नहीं सका हूँ कि रमणीक और अरमणीक किसे कहते हैं ?
केशीश्रमण--जैसे एक किसान का खेत जिसमें फसल पकती है तब वह रमणीक कहलाता है क्योंकि वहां किसान, साहूकार, मेहमान, ब्राह्मण, भिक्षु, पशु, पक्षी आया जाया करते हैं । तत्पश्चात् धान वगैरह अपने घरों पर ले जाते हैं । बाद वहां कोई भी नहीं आता है, जिसको अरमणीक कहा जाता है इसी प्रकार इक्षु का खेत वगैरह भी समझ लीजिए, जो कि पहले रमणीक होता है बाद में अरमणीक हो जाता है और इसी भांति नाटकशाला जो प्रारम्भ में रमणीक दीखती है जब नाटक करके लोग चले जाते हैं वही नाटकशाला अरमणीक दीख पड़ती है एवं फलाफूला उद्यान रमणीक दीखता है जब वह उद्यान सूख जाता है तब अरम. णीक होजाता है,इस प्रकार अनेक उदाहरण हैं। अतः मैं आपसे यही कहता हूँ कि मेरी मौजूदगी में तो आप रमणीक दीखते हो जो कि आपकी धर्म पर श्रद्धा, एवं व्रत धारण करना तथा वन्दन भक्ति आदि २ धर्मकार्य में अभिरुचि है,परन्तु मेरे जाने पर अरमणीक न हो जाना कि कहीं भाव-भक्ति धर्म-साधन में शीतल होजाओ अर्थात् धर्म-भावना को बढ़ाते हुये स्वपर कल्याण करने में तत्पर रहना ।
प्रदेशी---हे प्रभो ! इस बात की आप पक्की खातिरी रक्खें कि मैं कदापि रमणीक का अरमणीक नहीं होऊंगा । मैं आपको विश्वास दिलाता हुश्रा प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे राज में श्वेताम्बिका नगरी आदि ७००० ग्राम हैं जिसकी आमद आवेगी उसके चार भाग कर दूंगा। १-अन्तेवर, २-सेना, ३-खजाना और ४-दानशाला के लिये व्यय करूंगा, जिसमें याचकों को प्रति दिन अन्न, जल, वस्त्र वगैरह दान देता रहूँगा
राजा प्रदेशी अपनी आमद को अन्तेवर, सेना और खजाने में तो पहिले ही व्यय करता था परन्तु केशीश्रमण की उदारता के व्याख्यान से उसने दानशाला खोलने का निश्चय किया जिसको केशीश्रमण ने उपादेय समझ कर के ही इन्कार नहीं किया था। अहाहा ! भिक्षुओं की भिक्षा के अन्दर से भाग लेने वाले राजा के विचारों में कितना परिवर्तन हुआ। यह सब भगवान केशीश्रमण की महती कृपा का सुन्दर फल है।
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