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आचार्य केशी श्रमण का जीवन ]
[वि० पू० ५५४ वर्ष
मूर्ख अपने हिताहित को नहीं जानने वाले मनुष्य को मनुष्य तो क्या पर साक्षात् अवतारी पुरुष भी कैसे समझा सकता है ? आखिर लोहावाणिया ने अपना हठ नहीं छोड़ा। फिर वे सब के सब अपने निवासस्थान पर आये और वे लोग बहुमूल्य रत्रों में से एक एक रत्न बेच कर जेवर वस्त्र मकान सवारियां वगैरह सुख के तमाम साधन बनाकर देवताओं के समान सुख भोगने लगे जिसको लोहावाणिया ने देखा तो उसकी आंखें खुलीं और अपनी मूर्खता या हटामहता के लिये सिर ठोक २ कर पछताने लगा । हे प्रदेशी ! तू बुद्धिमान है ऐसा न हो कि रन मिलने पर भी उसका अनादर कर कुल परम्परा के बहाने लोहे को ही पकड़े रख कर लोहे |णिया के उदाहरण को चरितार्थ कर बैठे ।
प्रदेशी - हे प्रभो ! मैं लोहावाणिया का साथी नहीं हूँ। मैं हिताहित को अच्छी तरह से समझ गया हूँ । मेरे दिल में कुल परम्परा का वृथा भ्रम था वह आपके चरणों की कृपा से चोरों की भांति भाग गया है। हे प्रभो ! आप जैसे जगत-उद्धारक पुरुषों का सुयोग होने पर इस भव में तो क्या परंतु किसी भव-भवान्तर में भी पश्चाताप करने की आवश्यकता नहीं रहती है। हे दयानिधे ! मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि आपकी पहिली व्याख्या से मेरी अन्तरात्मा में सत्य का सूर्य उदय हो चुका था और अब मैं जीव शरीर को भिन्न २ मान कर कट्टर आस्तिक बन गया हू' । अब तो आप कृपा कर मुझे ऐसा धर्म सुनावें एवं रास्ता बतलावें कि जो नास्तिकपने में कर्म संचय किया है वह शीघ्र ही टूट जाय ।
केशीश्रमण ने राजाप्रदेशी की अभ्यर्थना स्वीकार कर केवली प्ररूपित विचित्र प्रकार का धर्म सुनाना शुरू किया और उसको विस्तार से सुनाया। अन्त में कहा कि आत्म-कल्याण के लिए मुख्य २ मार्ग हैं १ - साधुधर्म २ - गृहस्थधर्म, जिसमें साधुधर्म के लिए सर्वथा संसार को त्याग कर पंचमहाव्रत पांच समति तीन गुप्ति, दस यती धर्म, १२ प्रकार तप और १७ प्रकार संयम की आराधना करना और गृहस्थ धर्म के लिये समकित मूल १२ व्रत हैं ।
प्रदेशी - सूरीजी का व्याख्यान श्रवण कर परम आनन्द को प्राप्त हुआ और बोला कि हे प्रभो ! दीक्षा लेने की योग्यता अभी मेरे अन्दर नहीं, परन्तु गृहस्थ धर्म के १२ व्रत पालने की मेरी इच्छा है अतः इस विषय का जो विधि विधान हो वह करवा दीजिये ।
केशी श्रमण - जहा सुखं कह कर उसको समकित मूल १२ व्रत उच्चराय दिये । राजा प्रदेशी व्रत धारण कर अपने आपको अहोभाग्य समझ कर अपने स्थान जाने को तैयार होगया, इस पर केशीश्रमण ने पूछा कि हे राजन् ! आप जानते हो कि आचार्य कितने प्रकार के होते हैं ।
प्रदेशी - हां प्रभो मैं जानता हूँ कि कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य एवं तीन प्रकार के आचार्य होते हैं।
केशीश्रमण – हे प्रदेशी ! आपको ये भी मालूम होगा कि इन श्राचार्यों का बहुमान कैसे किया जाता है ? प्रदेशी -- कलाचार्य्यं और शिल्पाचार्य्यं का बहुमान वस्त्राभूषण भोजनादिक से होता है तब धर्माचाका सत्कार वन्दन, नमस्कार, सेवा और भक्ति से होता है ।
केशीश्रमण--हे राजन् ! जब आप इस प्रकार के जानकार हैं तब फिर तुमने अपने श्राचार्य का बिना बहुमान किये कैसे जाने की तैयारी कर ली ?
प्रदेशी --हे स्वामिन् ! मैंने जो बिना बहुमान किए जाने की तैयारी करी है इसमें भी कुछ महत्वपूर्ण
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