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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५७७-५९९
व्याख्यान में तत्त्विक, दर्शिनिक और अध्यात्मिक बातों के साथ त्याग वैराग्य पर अधिक जोर दिया जाता था जिसको श्रवण कर जनता की भावना आत्म कल्याण करने में दृढ़ हो रही थी ।
मंत्री नागदेव अपनी तीनों स्त्रियों और सब पुत्रों के साथ सूरिजी की सेवा भक्ति में रहता था और हमेशा व्याख्यान भी सुनता था वह भी केवल व्यसन रूप ही नहीं पर बड़ी रुचि के साथ, तथा नागदेव को संसार की असारता का भी खयाल होने लग गया था अतः वह संसार के कार्यों से उदासीन रहने लगा । इधर कुँवर तेजसी की कोमल आत्मा पर तो सूरिजी के व्याख्यान ने इतना प्रभाव डाला कि उसकी संसार एक कारागृह ही दीखने लगा । पर इस प्रकार का वैराग्य छिपा हुआ कब तक रह सकता एक दिन तेजसी ने सूरिजी के पास जाकर अर्ज की कि हे प्रभो ! आपके व्याख्यान से मेरा दिल संसार से विरक्त हो गया है । अब मैंने निश्चय कर लिया है कि आपश्री के चरणार्विन्द में भगवती जैन दीक्षा ग्रहन कर मैं अपना कल्याण सम्पादन करूँ । यह मेरी भावना सफल करना आपके हाथ में है ।
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मंत्री स्वयं संसार से बिना नहीं रहता है ।
बस, फिर तो था ही क्या, सूरिजी तो इस बात को चाहते ही थे कि कोई भी भावुक इस दुःखमय संसार का त्याग कर आत्म कल्याण करे। सूरिजी ने इस प्रकार का उपदेश दिया कि तेजसी का वैराग्य दुगुति होगया । तेजसी सूरिजी को वन्दन कर अपने मकान पर आया और अपने माता पिता को बधाई देने लगा कि में सूरिजी के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ आप श्रज्ञा प्रदान करावें । यद्यपि उदास था तथापि मोहनी कर्म एक इतना प्रबल होता है कि वह अपना असर किये नागदेव ने कहा बेटा ! अभी तुम्हारी बाल्यावस्था है। तेरी माँ तो तेरी शादी के लिये बहुत दिन हुये मुझे कह रही है मैंने इसके लिये निश्चय भी कर रक्खा है । अतः इस समय तेरे दीक्षा लेने का अवसर नहीं है इत्यादि पास में ही तेजसी की माता बैठी थी । उसने तो अपने जलते हुये कलेजे से ऐसे शब्दोच्चारण किये कि तुझे किसने भ्रमा दिया है तू दीक्षा की बात करता तो मैं अपने सामने काल को ही देखती हूँ । बेटा ! मैं तेरे बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती हूँ। मैं तुमको हर्गिज दीक्षा नहीं लेने दूंगी । व्यर्थ ही दीक्षा की बात कह कर दुनिया में हँसी क्यों करवाता है इत्यादि ।
तेजसी ने कहा माता पूर्वजन्म में तो अपन लोगों ने अच्छे सुकृत किये हैं कि यहां सब सामग्री अच्छी मिली है यदि इस मिली हुई सामग्री का दुरुपयोग किया जाय तो क्या बार बार ऐसी सामग्री मिल सकेगी। माता पिता तो पुत्र के हितचिंतक होते हैं और पुत्र के हितार्थ अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं तो आप मेरे हित में बाधा क्यों डालते हो। मैं तो आपको भी कह देना चाहता हूँ कि आप भी अपना कल्याण करने को इसी मार्ग का अनुकरण करें। कारण, एक दिन मरना तो सबके लिये निश्चय ही है फिर इस घोर दुःखों का खजाना रूप संसार में रह कर मिला हुआ अमुल्य मनुष्य का भव व्यर्थ क्यों खो दिया जाय ? माता सच्चा प्रेम तो जम्बु कुँवर के माता पिताओं का था कि उन्होंने अपने पुत्र के साथ दीक्षा लेकर अपना कल्याण किया अतः आपको भी विचार करना चाहिये । इस विषय में मैं आपसे अधिक क्या कहूँ ? मंत्री नागदेव तो पहिले से ही संसार से कर हुआ पर माता कमला अभी मोहनीय कर्म के
उदास रहता था उसको तो श्रापने पुत्र का कहना ठीक रूचि - उदय कई प्रकार से समझा बुझा कर अपने पुत्र को घर में रखने की कोशिश करती थी । पर नगदेव ने कहा कि जब तेजसी इस बाल्यावस्था में ही दीक्षा लेना
कुँवर तेजसी और माता पिता ]
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