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________________ वि० पू० २१७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अनुकरण करे यह स्वभाविक बात है इस पर आर्य महागिरि को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि तुम शिष्य ममत्व के कारण ही ऐसा अनुमान करते हो या तलाश भी की है फिर भी कार्य सुहस्ति ने इस पर इतना लक्ष्य नहीं दिया । जब आर्य महागिरि ने इस बात का निर्णय किया तो निश्चय हुआ कि इस आहार उपधि में क्रिय-विक्रय का दोष अवश्य है और राजा ने भक्ति वश हो कर ऐसा किया है बस फिर तो क्या था आर्य महागिरि ने कहा आर्य सुहस्ति में आज तुम्हारे साथ का सब संभोग X अलग कर देता हूँ इत्यादि वीरशासन में यह पहला ही अवसर था कि आचार्यों में संभोग अलग हो जाना । आचार्य हस्ति ने आर्य महागिरि के शब्द सुना तो उनकी आंखें खुली और वे ध्यान पूर्वक इसबात की शोध की तो वास्तव में श्रार्य महागिरि का कहना सत्य निकला आर्य सुहस्ति चलकर आर्य महागिरि के पास ये और अपनी भूल के लिए क्षमा मांग कर 'भिच्छमिदुक्कडं' दिया हाँ आत्मार्थी मुमुक्षुओं का यही कर्तव्य है कि यदि प्रमाद से दोष लग भी जाय पर जब उस दोष को स्वयं जान ले तो अपनी भूल स्वीकार कर उस प्रमाद का 'मिच्छमिदुक्कडं ' देना ही चाहिये । श्रात्मार्थी मुमुक्षुओं के दीर्घ काल की कषाय नहीं हुआ करती है कारण पाकर नाम मात्र कषाय हो भी जाय तो उसकी सफाई कर लेने के वाद बह क्षण भर भी रह नहीं सकती है । यही हाल आर्य महागिरि और हरि का हुआ पर उन दोनों के शिष्य सन्तान भी तो थे और इस बात का उन पर भी तो असर हुआ था। बस उस सर के कारण ही जैन शासन में सब से पहला समुदायिक भेद का जन्म हुआ और इन दोनों की दो सम्प्रदायें हो गई और इन समुदायों का आस्तिव वाचक देवऋद्धि गरिणक्षमाश्रमण तक बराबर चला आया था । जिसको हम आगे के प्रकरणों में इन दोनों की सन्तान परम्परा के नामों के साथ बतलावेंगे । आर्यमहागिरि यो तो वे युग प्रधान एवं गच्छ नायक श्राचार्य थे पर विशेषतय आपश्री जंगलों में रह कर कठोर तपश्चर्य एवं जिनकल्पी की तुल्यना करते थे प्रायः वे नग्नत्व रह कर दुष्कर तप किया करते थे x पं० मुनि श्रीकल्याणविजयजी महाराज का मत है कि यह घटना राजा सम्प्रति के समय की नहीं पर राजा विन्दुसार के समय की है कारण आपने सम्प्रति का राजरोहण काल वी० नि० सं० २९५ का बतलाया है पर पट्टावलियों के मत से आर्य सुहस्ती का स्वर्गवास वी० नि० सं० २९१ में ही हो चुका था यदि सम्प्रति का राजरोहण समय वी० नि० सं० २९५ का मान लिया जाय तो साथ में यहमी मानना पड़ेगा कि भायं सुहस्ती और सम्राट सम्प्रति का मिलापही नही हुआ था ? पर इतनातो आप मंजूर करते हैं कि सम्प्रति राजा को उज्जैनी में भार्य सुहस्ती ने जैन बनाया तथा आचार हेमचंद्रसूरि के मत से सम्राट ने भारत और भारत के बाहर अनार्य देशों में धर्मप्रचार करवाया था इसमें दो बातें हो सकती हैं एक तो राजा सम्प्रति का राजाभिषेक वी० नि० सं० २९५ पूर्व हुआ होगा या आर्य सुहस्ती का स्वर्ग वास वो० नि० सं० २९१ में न होकर वी०नि० सं० तीनसौ के बाद हुआ होगा खैर पन्यासजी महाराज का यह मतभेद केवल सम्प्रति समय का ही नहीं है पर सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय से ही चला आ रहा है कारण भाचार्य हेमचन्द्रसूरि के मतले चन्द्रगु का राजरोहण समय वी० नि० सं० १५५ का है तब पन्यासजी उस समय को वी० नि० सं० २१० का बतलाते हैं इ विषय में मैंने राज प्रकरण के अन्त में अर्थात् इसी ग्रन्थ के पृष्ट ३११ पर स्पष्टीकरण कर दिया हैं जिसमें राजमार्ग आचा हेमचन्द्रसूरि का मत मानना मैंने ठीक समझा है कारण इस मत के पोषक कई प्रमाण डा० त्रिभुवनदान लहेरचन्द वढोर वाले ने प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास नामक वृहद्मन्य में दिया है जिससे आचार्य हेमचन्द्रसूरि का ही मत पुष्ठ होत है हाँ इस प्रकार समय के लिए इतिहास में बहुतसी गड़बड़ हैं जिसकी गवेषणा करना खास जरूरी है अतः यहाँ प नि यत्मक न कह कर " महाजनो येनगतःस पन्थाः " कह देना ही पर्याप्त होगा । निर्णय फिर भविष्य में । Jain Ed३४६ International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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