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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
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ओसवाल संवत् १८३
उस हालत में गच्छ का सब भार श्राचार्य सुहस्ति पर ही रहता था पट्ठावल्यादि ग्रन्थों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है जैसे किः"तत्र वीआर्यमहागिरिजिनकल्पिक तुलनामारूढो जिनकल्पिक कल्पः" "पट्टावलि सं० पृष्ट ४५
अन्त में आर्यमहागिरि गजाग्रपद तीर्थ अर्थात् गजेन्द्र स्थान जो दर्शनपुर नगर के नजदीक था में अनशन कर समाधि पूर्व नाशवान शरीर का त्याग कर वी नि० २४५ वें वर्षे स्वर्ग में अवतीर्ण हुए। इन महापुरुष के अनशन व्रत करने के कारण वह गजाप्रपद जैनों में विशेष तीर्थभूमि कहलाने लगा और अनेक भव्यात्मानों ने वहां की यात्रा दर्शन स्पर्शन कर अपना कल्याण किया-आपके पट्टधर आर्यबलिस्सह आचार्य हुए।
आर्यमहागिरि के स्वर्गवास के पश्चात गच्छ नायक आर्य सुहस्तिसूरि हुए-आर्य सुहस्तिसूरि अपने जीवन में आप स्वयं एवं सम्राट् सम्प्रति द्वारा जैनधर्म का प्रचार भारत और भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी प्रचूरता से करवाया था जिन देशों को लोग अनार्य कहते थे पर समाट् एवं सूरिजी के उद्योग से वे आर्य कहलाने लग गये जिनका विशेष वर्णन सम्राट् सम्प्रति के जीवन में लिख पाये हैं।
आर्यसुहस्तिसूरि एक समय पुनः उज्जैन नगरीमें पधारे और नगरीके बाहर एक उद्यान ठहर गये तत्सश्चात कई साधु नगर में मन्दिरों के दर्शनार्थ गये और दर्शन करने के बाद मकान की याचनार्थ वे भद्रासेठानी के मकान पर चले गये । भद्रा ने साधुओं का सत्कार किया और पधारने का कारण पूछा? साधुओंने मकान की याचना की सेठानी ने बड़े ही हर्ष के साथ अपना मकान देने को स्वीकार कर लिया अतः सूरिजी एवं सब साधु उद्योन से चल कर सेठानी भद्रा के मकान में आ गये वहाँ सूरिजी का व्याख्यान भी होता था।
___ एक समय सूरिजी शास्त्रों की स्वाध्याय करते थे उसमें नलिनीगुल्म नामक वैमान का अधिकार वार वार श्राया करता था। सेठानी भद्रा के एक पुत्र था जिसका नाम था 'आवन्तिसुकुमाल जो सुकुमारता में शालभद्र की स्पर्द्ध करता हुआ अपने सात भूमिवाले रंगमहल में ३२ सुरसुन्दरियों सदृश स्त्रियों के साथ स्वर्ग सदृश सुख भोग रहा था उसने अपने महल के अन्दर बैठा हुआ सूरिजी की स्वाध्याय सुनी और नलिनीगुल्म वैमान का नाम सुनकर उपयोग लगाया तो उसको जातिस्मरण ज्ञानोत्पन्न हो गया अतः वह अपने महल से उतर कर सूरिजी के पास आया और पूछा कि भगवान् । आप जिस नलिनीगुल्म वमान का वर्णन कर रहे हैं वह मैंने देखा है वहां के सम्पूर्ण सुखोंको मैंने अनुभव किया है और अभी भी मैं उस सुखों को चाहता हूँ कृपा कर यह बतलावें कि ऐसा कोई उपाय है कि मैं पुनः नलिनीगुल्म वैमान में जा सकू। सूरिजी ने उत्तर दिया कि देवानुप्रिय ! नलिनीगुल्म वैमान कौनसी बड़ी बात है मैं सुमको ऐसा रास्ता बतला देता हूँ कि उस वैमान से भी अनंत गुणे सुखों के स्थान को प्राप्त कर सकते है ? कुवर ने कहा कि वह कौनसा उपाय है ? सूरिजी ने कहा जैनदीक्षा लेकर उसको सम्पूर्ण आराधना करने से स्वर्ग व परम्परा से मोक्ष मिल सकता है। बस । मुक्ति रमणी का रसिया भावन्ति सुकुमाल का दिल दीक्षा से ललचा गया । इस पर सूरिजी ने कहाकि कुंवरजी ! आप दीक्षा लेने को तो तैयार हुए है पर पहले आप इस बात का विचार कर लेना कि इस सुकुमाल शरीर से दीक्षा पलेगी या नहीं ? कारण दीक्षा में रमणता करने में आत्मिक सुख तो इतना है कि जिसका जबान द्वारा वर्णन ही नही किया जा सकता है पर शरीर के लिये दीक्षा में अनेक परिसह सहन करने पड़ते है यहां मैणके दान्तों से लोहा के चन्ना चबाने है तथा खड्गधारा पर चलना है वेलु की भांति निरस और अग्नि तुल्य स्पादि अनेक कठिनाइयां है इत्यादि । सूरिजी ने आवंतिसुकुमाल की परीक्षा की।
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