SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० पू० २१३ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आतिसुकुमाल ने कहां । प्रभों । मैंने पूर्व जन्म में भी दीक्ष ली एवं पाली है और इसभव में भी मैंने निश्चय कर लिया है कि दीक्षा अवश्य लेनी है यदि परिसह सहन न होगा तो मैं दीक्षा लेकर अनशन कर दूंगा, इत्यादि । सूरिजी ने कहा कि, 'जहां सुखम् देवानुप्रिय । यदि इतनी मजबूती है तो शीघ्रता कीजिये क्योकि धर्मकार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं है । 'श्रेयसेबहुविघ्नानि ' अवन्तिसुकुमाल सूरिजी को वन्दन कर वहाँ से चलकर अपने मकान पर श्राया और अपनी माता और स्त्रियों से दीक्षा की अनुमति मांगी परन्तु वे कब चाहाती थी कि प्यारा आवन्तिसुकुमाल सदैव के लिये हमको छोड़कर चला जाय उन्होंने बहुत समझाया पर जिन्होंने अपने ज्ञान द्वारा संसार को एक काराग्रह समझ लिया है वे माता और स्त्रियों की पास में कब तक बन्धा हुआ रह सकता है । आवन्तिसुकुमाल ने तो वेराग्य की धून में अपने शरीर पर से गृहस्थ के कपड़े उत्तार कर स्वयं साधु का वैष पहन लिया और तत्काल ही सूरिजी के पास आया अतः सूरिजी ने आवन्ति कुँवर की माता और स्त्रियाँ को समझा कर विधि विधान के साथ अवन्तिसुकुमाल को दीक्षा दे दी । नवन्तिसुकुमालने तो पहले ही निश्चय कर लिया था कि दीक्षा लेकर अधिक कष्ट न सहन कर के मैं अनशन व्रत कर दूंगा और वैसा ही उसने किया। सूरिजी की आज्ञा लेकर जंगल में जा रहे थे परन्तु उनके सुकुमाल पैरों में कांटा कंकर लगने से रुधर की धारा बहने लग गई । पर मुनिजी उसकी परवाह न करते हुए एक जंगल में जाकर ध्यान लगा दिया एवं शिप्रा नदी के उपकाण्टे पर आत्माध्यन में मग्न हो गये रात्रि समय एक सियालनी (भृगली) उस बनमें भ्रमन करती हुई रुधर की वासना से चलती चलती मुनि श्रावन्ति के पास आई और उसके पैरों पर लगा हुआ रक्त के कारण वह पैरों को काट काट कर खाना शुरू कर दिया क्रमशः रात्रि भर में उस मुनि का तमाम मांस भक्षण कर गई अतः मुनि शुभध्यान में काल कर नलिनीगुल्म वैमान में उत्पन्न हो गया वहाँ देवताओं ने जल पुष्प वरसाया । सुवह होते ही भद्रासेठानीजो कि अपनी ३२ पुत्र वधूओं के अन्दर एक तो गर्भवती थी शेष ३ १ पुत्र वधूओं को साथ लेकर अपने पुत्र श्रावन्तिमुनि के दर्शनार्थ सूरिजी के पास आई सूरिजी को बन्दना कर पुत्रके लिये पूछा तो सूरिजी ने कहा कि वहतो जंगल में जाकर अनशन व्रत कर लिया है अतः माता अपनी पुत्र वधूत्रों को लेकर वहाँ पहुंची कि जहां मुनिने अनशन किया था पर वहां जाकर माता क्या देखती है कि मुनि का कलेवर पड़ा हुआ था माताने बहुत अफसोस किया बाद सूरिजी के पास आइ सूरिजी ने उनको शरीर की अनित्यता एवं संसार की असारता का उपदेश दिया कि सेठानीभद्रा अपनी ३१ पुत्र बधूत्रों के साथ सूरिजी के चरण कमलों से भगवती जैन दीक्षा ग्रहन कर अपना आत्म कल्याण किया । अवन्तिसुकुमाल की एक स्त्री जो गर्भवति थी उसके पुत्र हुआ जिसका नाम 'महाकाल' रख गया था उसने अपने पिता के देहत्याग के स्थान भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाकर प्रतिष्ठा करवाई और अपने पिता के नाम की स्मृति के लिये उस मन्दिर का नाम 'श्रवन्ति पार्श्वनाथ' रख दिया था कई र्सा तक तो चतुर्विध श्रीसंघ उस मन्दिर की सेवा पूजा उपासना कर आत्म कल्याण किया पर किसी समय वहाँ ब्राह्मणों का जौर बढ़ जाने से उन्होंने भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति को नीचे दबाकर ऊपर महादेव का लिंग स्थापित कर उसका नाम महाकाल महादेव रख दिया पर जब राजा विक्रमादित्य को प्रतिबोध देने वाले आचार्य सिद्धसेनदिवाकर हुए उस समय उन्होंने राजा विमादित्य की श्राग्रह से कल्याणमन्दिर नामक स्तोत्र Jain Educ3ternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy