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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ।
| ओसवाल संवत् ६६०-६८२
पुत्र और सात पुत्रियों को जन्म देकर अपने जीवन को कृतार्थ बना लिया था जिसमें एक कल्याण नाम का पुत्र तो कल्याण की मूर्ति ही था ! इतनी सम्पति इतना परिवार होने पर भी शाह डाबर एवं आपकी पत्नी पन्ना धर्मकरणी करने में इतने दृढ़ प्रतिज्ञा वाले थे कि वे अपने जीवन का अधिक समय धर्म साधन में ही व्यतीत करते थे ! जब माता पिता की इस प्रकार धर्म प्रवृति होती है तो उनके बाल बच्चों पर धर्म का प्रभाव पड़े बिना कैसे रह सकता है ?
शाह डाबर पाश्चात्य प्रदेश के साथ व्यापार करता था तो उसके हाथ एक ऐसा पन्ना लग गया कि उसने उस पन्ना की एक भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति बना कर अपने घर देरासर में प्रतिष्ठा करवादी जिसकी सेठजी आदि सब परिवार के लोग त्रिकाल सेवा पूजा किया करते थे।
पूर्व जमाने में घर देरासर की प्रवृति अधिक थी और इससे कई प्रकार के लाभ भी थे। कारण, एक तो घर देरासर होने से क्या स्त्री और क्या पुरुष सब कुटुम्ब वाले सेवा पूजा एवं दर्शन का लाभ ले सकते थे इतना ही क्यों पर जैनेतर नौकर चाकर भी परमात्मा के दर्शन उपासना एवं पूजा का लाभ उठा सकते थे। दूसरे घर में अपने इष्ट देव होने से दूसरे अन्य देव देवियों को स्थान नहीं मिल सकता था तीसरे जैनेतरों की लड़की परणीज कर लाते थे वह भी जैन धर्मोपासिका बन जाती थी । चौथे घर में देरासर होने से धर्म पर श्रद्धा भी मजबूत रहती थी इत्यादि अनेक फायदे थे।
एक समय परोपकारी आचार्य कक्क सूरीश्वरजी महागज भू भ्रमण करते हुए चन्द्रावती के नजदीक पधार रहे थे । यह शुभ समाचार चन्द्रावती के संघ को मिलते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा और वे लोग सूरिजी के स्वागत की तैयारी करने लग गये। फिर तो कहना ही क्या था बड़े ही समारोह से नगर प्रवेरा का महोत्सव किया । सूरिजी ने चन्द्रावती में पदार्पण कर जैन मंदिरों के दर्शन किये और बाद थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी। सूरिजी का ख्यान इतना प्रभावोत्पादक था क जिस किसी ने एक बार सुन लिया फिर तो उसको ऐसा रंग लग जाता था कि बिना सूरिजी का पाख्यान सुने उसको चैन ही नहीं पड़ता था।
सूरिजी का व्याख्यान हमेशा विविध विषय पर होता था पर आपके व्याख्यान में संसार की असारता और त्याग वैराग्य एवं यात्म कल्याण पर अधिक जोर दिया जाता था।
एक दिन व्याख्यान में टूरिजी ने सामुद्रिक शास्त्र का इस खूबी से वर्णन किया कि हस्त पदों की रेखा शरीर के तिल मास लशनियादि के भविष्य में होने वाले शुभाशुभ फल विस्तार से बयान किये और कहा कि श्रोता जनों! सर्वज्ञ के ज्ञान से कोई भी विषय शेष नहीं रह जाता। हां, उसमें हय गय और उपादय अवश्य होता है । पर जब तक वस्तु तत्व का सम्यक ज्ञान नहीं होता है तब तक हय में त्याग बुद्धि गय में ज्ञापक बुद्धि और उपादय में धारण बुद्धि नहीं हो सकती है अतः हय गय और उदय को सम्यक् प्रकार से समझ कर हय का त्याग गय को जानना और उपादय को अंगीकार करना चाहिये इत्यादि।
सूरिजी का व्याख्यान सब को कर्ण प्रिय था। प्रत्येक मनुष्य की भावना थी कि हमारे शरीर में कोई भी शुभ लक्षण शुभ रेखादि है या नहीं ? यही विचार शाह कल्याण के हृदय में चक्कर लगाने लगा। कल्याण समय पाकर सरिजी के पास पहुँचा और बन्दन कर अपना हाथ सूरिजी के सामने बढ़ाया जिसक सूरिजी ने ध्यान लगा कर देखा और कहा कल्याण तेरे शरीर में इतने उत्तम लक्षण हैं कि यदि तू भगवती जैन दीक्षा गृहण कर ले तो तेरी भाग्य रेखा इतनी जबर्दस्त खुलेगी कि तू एक जैनधर्म का उद्धारक होकर
आचार्य ककसूरिजी चन्द्रावती में ] Jain Education International
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