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वि० सं० २६०–२८२ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
२४ - प्राचार्य श्रीदेवगुप्तसूरि (चतुर्थ)
भूपा सीन्कुमटे स्वगोत्र विषये वै देवगुप्तो गुणी । भूत्वा दीक्षित एव जैन सुमते चक्रे कठोरं तपः || येनासन् वहवोऽपि भूमिपगषाः शिष्याः प्रभावान्विताः । aratsi सुविकाशमान विधुवत् कल्याणकारी प्रभुः ॥
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चार्य देवगुप्त सूरीश्वरजी महाराज एक देवमूर्त्ति की भांति केवल मनुष्यों से ही नहीं पर देव देवियों से सदैव परिपूजनीय थे । आप चन्द्र जैसे शीतल, सूर्य्य जैसे तेजस्वी, सागर जैसे गंभीर, पृथ्वी जैसे धैर्यवान, मेरु जैसे अकम्प, और मनोकामना पूर्ण करने में कल्पवृक्ष सदृश्य मरुधर के चमकते हुये सितारे ही थे । आप जैन धर्म का प्रचार करने में अद्वितीय वीर थे अपने पूर्वजों की स्थापित की हुई शुद्धि की मशीन को चलाने में एक चतुर मशीनगर का काम किया करते थे आप का जीवन जनता के कल्याण के लिये ही हुआ था जिसका अनुकरण हमारे जैसे पामर जीवों को पावन बना देता है ।
जिस समय का हाल हम लिख रहे हैं उस समय आर्बुदाचल की शीतल छाया में अलकापुरी से स्पर्द्धा करने वाली चन्द्रावती नाम की नगरी थी जिसको सूर्य्यवंशी महाराज चन्द्रसेन ने आबाद की थी । चन्द्रावती नगरी जब से आबाद हुई तब से वह जैनियों का एक केन्द्र ही कहलाता था क्योंकि वहाँ बसने वाले राजा और प्रजा जैनधर्म के ही उपासक थे । चन्द्रावती नगरी में सैकड़ों जैन तीर्थकरों के मन्दिर थे और लाखों मनुष्य श्रद्धा पूर्वक उन मन्दिरों की सेवा पूजा भी करते थे ।
उपगच्छ एवं कोरंटगच्छ के आचार्यों ने समय समय पर चन्द्रावती में चतुर्मास कर तथा आपके मुनिगरण वहां ठहर कर सदैव धर्मोपदेश दिया करते थे । धर्म के प्रभाव से उन लोगों के पुण्य भी बढ़ते जा रहे थे । चन्द्रावती नगरी में बड़े २ व्यापारी लोग भी बस रहे थे । उनका व्यापारी सम्बन्ध केवल भारतीयों के साथ ही नहीं था पर वे पाश्चात्य प्रदेश के व्यापारियों के साथ व्यापार सम्बन्ध रखते
थे | भारत से लाखों करोड़ों का माल विदेशों में भेजते थे तथा वहां से भी कई प्रकार के पदार्थ भारत में लाते थे कई लोगों ने तो वहां अपनी कोठियें भी खोल दी थीं जिससे वे पुष्कल द्रव्य पैदा करते थे और उस न्यायोपार्जित द्रव्य को शुभ कार्यों में व्यय कर कल्याणकारी पुण्य संचय भी किया करते थे । जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति करना वे अपना सबसे पहिला कर्त्तव्य समझते थे ।
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er व्यापारियों के अन्दर कुमट गोत्रीय शाह डाबर नाम का एक व्यापारियों का श्रमेश्वर श्रेष्ट बसता था । उसके पास इतना द्रव्य था कि लोग उसको धन कुबेर के नाम से ही पुकारते थे । शाह डाबर जैसा धर्मज्ञ था वैसा परोपकारी भी था । साधर्मी भाइयों की ओर उसका अधिक लक्ष्य था । दानेश्वरी तो ऐसा था कि याचकों के दरिद्र को देश पार कर दिया था। शाह डाबर के पत्नी नामक गृहदेवी थी जिसने आठ
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चन्द्रावती नगरी और शाह डावर
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