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________________ वि० पू० १८२६६] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाना । पाठकों की जानकारी के लिये थोड़ा हाल यहां लिख देता हूँ कि पुरातत्व के प्रेमियों ने इस प्रकार के प्रीचीन पदार्थों के लिये किस किस प्रकार के परिश्रम किया और करते हैं। खारबेल का यह महत्वपूर्ण शिलालेख खण्डगिरि उदयगिरि पहाड़ी की हस्तीगुफा से मिला है। इस लेख को सब से प्रथम पादरी स्टर्लिंग ने ई० सन् १८६० में देखा था। पर पादरी साहब उस लेख को साफ तौर से पढ़ नहीं सके। इसके कई कारण थे। प्रथम तो वह लेख २००० वर्ष से भी अधिक पुराना होने के कारण जर्जर अवस्था में था। यह शिलालेख इतने वर्षों तक सुरक्षित न रहने के कारण घिस भी गया था। कई अक्षर मिटने लग गये थे और कई अक्षर तो बिल्कुल नष्ट भी हो चुके थे। इस पर भी लेख पाली भाषा से मिलता हुआ शास्त्रों की शैली से लिखा हुआ था। इस कारण पादरी साहब लेख का सार नहीं समझ सके । तथापि पादरी साहब भारतीयों की तरह हताश नहीं हुए। वे इस लेख के पीछे चित्त लगा कर पड़ गये। उन्होंने इस शिलालेख के सम्बन्ध में अंग्रेजी पत्रों में खासी चर्चा प्रारम्भ कर दी। अतः सारे पुरातत्वियों का ध्यान इस शिलालेख की ओर सहज ही में आकर्षित हो गया। इस शिलालेख के विषय में कई तरह का पत्र व्यवहार पुरातत्वज्ञों के आपस में चला। अन्त में इस लेख को देखने की इच्छा से सबने मिलकर एक तिथि निश्चित् की । उस तिथि पर इस शिलालेख को पढ़ने के लिए अनेकों यूरोपियन एकत्रित हुए। कई तरह से प्रयत्न करके उन्होंने उसका मतलब जानना चाहा पर वे अन्त में असफल हुए । इतने पर भी उन्होंने प्रयत्न जारी रखा। इस शिलालेस्त्र के कई फोटू लिये गये । कागज लगा-लगा कर कई चित्र लिखे गये । यह शिलालेख चित्र के रूप में समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ । इस शिलालेख पर कई पुस्तकें निकली। इस प्रयत्न में विशेष भाग निम्नलिखित यूरोपियनों ने लिया । डॉ० टामस, मेजर, कीट्ट, जनरल, कनिंगहाम, प्रसिद्ध इतिहासकार विन्सटेंट, डा. स्मिथ, बिहार गवर्नर सर एडवर्ड आदि आदि ___ जब इसका पूरा पता नहीं चला तो उस खोज के आन्दोलन को भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। शिलालेख की नकल यहाँ से इंगलैण्ड भेजी गयी । वहाँ के विज्ञानिकों ने उसकी विचित्र तरह से फोटु ली । भारतीय पुरातत्वज्ञ भी निंद्रा नहीं ले रहे थे इन्होंने भी कम प्रयत्न नहीं किया। महाशय जायसवाल, मिस्टर राखलदास बनर्जी श्रीयुत भगवानदास इन्दर्जी और अन्त में सफलता प्राप्त करने वाले श्रीमान् केशव लाल हर्षदराय ध्रुव थे । श्री० केशवलाल ने अविरल प्रयत्न से इस लेख का पता निकाला । तब से सन १९१८ अर्थात् करीब सौ वर्ष के प्रयत्न से अन्त में यह निश्चित हुआ कि यह शिलालेख कलिंगाधिपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल का है। सचमुच बड़े शोक की बात है कि जिस धर्म से यह शिलालेख सम्बन्ध रखता है, जिस धर्म की महत्ता को बतानेवाला यह लेख है, जिस धर्म के गौरव के प्रदर्शन करनेवाला यह शिलालेख है उस जैन धर्म वालों ने आज तक कुछ भी नहीं किया। जिस महत्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान देने की अत्यन्त आवश्यकता थी वह विषय उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया । वास्तव में जैनियों ने इस विषय की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं ? क्या वे अपनी ओर से कृतज्ञता प्रकट करना भूल ही गये ? जहाँ चन्द्रगुप्त सम्राट और सम्प्रति राजा के लिए जैन प्रन्थकारों ने पोथे के पोथे लिख डाले वहाँ क्या श्वेताम्बर और क्या दिगम्बर २ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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