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आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् २१८
किसी भी आचार्य ने इस नरेश के चरित्र की ओर प्रायः कलम तक नहीं उठाई कि जिसके आधार से आज हम जनता के सामने खारवेल का कुछ वर्णन रख सकें । क्या यह बात कम शोचनीय है । ___उधर श्राज जैनेतर देशी और विदेशी पुरातत्त्वज्ञ तथा इतिहास प्रेमियों ने साहित्य संसार में प्रस्तुत लेख के सम्बन्ध में धूम मचादी है । उन्होंने इसके लिए हजारों रुपयों को खर्चा | अनेक तरह से परिश्रम कर पता लगाया। पर जैनी इतने बेपरवाह निकले कि उन्हें इस बात का भान तक नहीं । श्राज अधिकांश जैनी ऐसे हैं जिन्होंने कान से खारवेल का नाम तक नहीं सुना है । कई अज्ञानी तो यहाँ तक कह गुजरते हैं कि गई गुजरी बातों के लिए इतनी सरपच्ची स्था मगज़मारी करना व्यर्थ है । बलिहारी इनकी बुद्धि की ! वे कहते हैं कि इस लेख से जैनियों को मुक्ति थोड़े ही मिल जायगी। इसे सुनें तो क्या और पढ़ें तो क्या ?
और न पढ़ें तो क्या होना-हवाना ! अर्वाचीन समय में हमें अपने धर्म का कितना गौरव रह गया है इस बात की जाँच ऐसी लच्चर दलीलों से अपने आप हो जाती है । जिस धर्म का इतिहास नहीं उस धर्म में जान नहीं । क्या यह मर्म कभी भूला जा सकता है ? कदापि नहीं।
सज्जनो ! महाराज खारवेल का लेख जो अति प्राचीन है तथा प्रत्यक्ष प्रमाण भूत है जैन धर्म के सिद्धान्तों को पुष्ट करता है । यह जैन धर्म पर अपूर्व प्रभाव डालता है। यह लेख भारत के इतिहास के लिये भी अच्छा प्रमाण स्वरूप है । कई बार लोग यह आक्षेप किया करते हैं कि जिस प्रकार बौद्ध और बेदान्त मत राजाओं से सहायता प्राप्त करता था तथा अपनाया जाना था उसी प्रकार जैन धर्म किसी राजा की सहायता नहीं पाई थी न यह अपनाया जाता था या जैन धर्म सारे राष्ट्र का धर्म नहीं था, उनको इस शिला लेख से प्रत्यक्षरूप से पूरा उत्तर मिल जाता है और उनको बोलने का अवसर ही नहीं मिल सकता है ।
___ भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के प्रचारको में शिलालेख में सबसे प्रथम खारवेल का ही नाम उपस्थित करते हैं । महाराजा खारवेल कट्टर जैनी था। उसने जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार किया। इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि आप चैत्र ( चेटक ) वंशी थे । आपके पूर्वजों को महामेघवाहन की उपाधि मिली हुई थी । आपके पिता का नाम बुद्धराज तथा पितामह का नाम खेमराज था । महाराजा खारवेल का जन्म १९७ ई० पूर्व सन् में हुआ। पंद्रह वर्ष तक आपने बालवय आनन्द पूर्वक बिताते हुए आवश्यक विद्याध्ययन भी कर लिया तथा नौ वर्ष तक युवराज रह कर आपने राज्य का प्रबन्ध अच्छा किया था । इस प्रकार २४ वर्ष की आयु में आपका राज्याभिषेक हुआ । १३ वर्ष पर्यन्त आपने कलिंगाधिपति रह कर सुचारु रूप से शासन किया । अन्त में अपने राज्य काल में दक्षिण से लेकर उत्तर लों राज्य का विस्तार कर आपने सम्राट् एवं चक्रवर्ति की उपाधि भी प्राप्त की थी आपने अपना जीवन धार्मिक कार्य करते हुए बिताया। अन्त में आपने समाधि मरण द्वारा उच्च गति प्राप्त की । ऐसा शिलालेख से मालूम होता है।
___ यह शिलालेख कलिंग देश, जिसे अब उड़ीसा कह कर पुकारते हैं, के खण्डगिरि (कुमार पर्वत ) की हस्ती नाम्नी गुफा से मिला था यह शिला लेख १५ फुट के लगभग लम्बा तथा ५ फीट से अधिक चौड़ा है।
यह शिलालेख १७ पंक्ति में लिखा हुआ है । इस शिलालेख की भाषा पाली भाषा सं मिलती है । यह शिलालेख कई व्यक्तियों के हाथ से खुदवाया हुआ है । पूरे सौवर्ष के परिश्रम के पश्चात् इसका समय समय पर संशोधन भी किया है। जिसकी मूल नकल के साथ अनुवाद यहाँ दे दिया जाता है ।
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