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आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५–५१७
तीयों को बहुत सताया। इतना ही क्यों पर उन लोभान्धों ने देवस्थानों पर भी हमले कर खूब धन लूटा ।
और धन लुटने के साथ उन्होंने तो धर्मान्धता के कारण देवस्थानों की मूर्तियों वगैरह कीमती पदार्थों को भी तोड़ फोड़कर नष्ट भ्रष्ट कर डाला था।
एक समय आचार्य यक्षदेवसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ मुग्धपुर नगर में विराजते थे । आपने सुना कि आस पास में ग्लेच्छ लोग ग्रामों को लूट रहे हैं। मन्दिर मूर्तियां तोड़ फोड़ कर नष्ट कर रहे हैं । इस हालत में श्री संघ को एकत्र किया और मन्दिरजी के रक्षण के लिये कहा पर विचारे श्रावक क्या कर सकते थे वे अपने धन जन की रक्षा करने में ही असमर्थ थे।
आचार्य श्री ने एक देवी को बुला कर कहा कि तुम म्लेच्छों की खबर लाओ कि वे कहां पर हैं और यहां कब तक आवेंगे इत्यादि । देवी म्लेच्छों के पास गई पर कर्म योग से म्लेच्छों के देवों ने उस देवी को पकड़ कर अपने कब्जे में करली अतः देवी वापिस न आ सकी इधर म्लेच्छों के देव सूरिजी के पास आकर कहने लगे कि म्लेच्छ मन्दिर में आ पहुँचे हैं । सूरिजी अपने साधुओं को लेकर मन्दिर में गये तो वहां कोई भी म्लेच्छ नहीं पाये । इस प्रकार म्लेच्छ देव हर समय यही कहते रहे कि म्लेच्छ मन्दिर में आ गये हैं२ ।
प्राचार्य ने सोचा कि म्लेच्छों के आने पर मूर्तियों का रक्षण होना मुश्किल है अतः पहिले से ही इन्तजाम करना जरूरी है अतः श्रावकों को बुलाकर कहा कि अपने प्राण चले जाय तो परवाह नहीं पर त्रिजगपूजनीय परमात्मा की मूर्तियों की रक्षा करना अपना खास कर्त्तव्य है इत्यादि उपदेश दिया जिससे श्रावक तैयार हो गये । पट्टावली में लिखा है कि बहुत से श्रावक और कई साधु रात्रि समय मूर्तियों को सिर पर उठा कर किसी सुरक्षित स्थान में चले गये . इधर देवी म्लेच्छों से छुटकर सूरिजी के पास आई और कहने लगी कि पूज्यवर ! अब म्लेच्छ आ रहे हैं । सूरिजी ने देवी को उपालम्भ दिया कि तू इतनी देर से कैसे आई ! देवी ने कहा पूज्य ! इसमें मेरा कसूर नहीं है । कारण, मेरी असावधानी से म्लेच्छदेवों ने मुझे पकड़ लिया था अतः मैं छुटते ही आपके पास इत्तला देने को आई हूँ।
खैर दो साधुओं को पहरायत रख सूरिजी ने शेष साधुओं के साथ ध्यान लगा दिया इतने में म्लेच्छ मन्दिर में गये तो वहाँ मूर्तियाँ नहीं पाई । अतः वे गुस्से में लाल बबूल होकर सूरिजी के पास आये। और कहा कि बतलाओ मूर्तियाँ वरन् तुम सब को जान से मार डाला जायगा ? पर सूरिजी तो थे ध्यान में उत्तर नहीं दिया अतः म्लेन्छों ने कई साधुओं को जान से मार डाला, कई को घायल किया, कई को मार पीट कर कष्ट पहुँचाया और सूरिजी को पकड़ कर कैद कर लिया। इतना कष्ट सहन करते हुये भी सूरिजो अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुए और मूर्तियों की रक्षा कर ही ली । आहाहा ! उस समय जैन जनता की मूर्तियों पर कैसी श्रद्धा थी कि वे प्राणों की न्योछावर भी करने को तैयार रहते थे , रात्रि में चलना या मूर्ति सिर पर उठाना साधुओं को कल्पता नहीं है पर "आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति" इस सूत्रानुसार साधु ऐसा कार्य भी कर सकते हैं ।सूरिजी को कैद कर लिया था पर उनकी निगरानी के लिए जिस सिपाही को रक्खा था वह पहिले जैन था उसे म्लेच्छोंने जबरन पतित बना लिया था उसने अपना कर्तव्य समझ कर सूरिजी को छोड़ दिया और अपने खानगी एक आदमी को साथ में दे कर सूरिजी को सकुशल खटकूप नगर पहुँचा दिया।
सूरिजी कुशलता पूर्वक खटकूपनगर पहुँच गये पर थे आप अकेले ही जिन्हों को देख कर संघ के लोगों ने बड़ा ही आश्चर्य किया कि पांचसौ मुनियों के साथ विहार करने वाले गच्छनायकसूरिजी
म्लेच्छों से मूर्तियों का रक्षण-]
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