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वि० सं० ११५ – १५७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आज केले कैसे आये । श्रावकों ने विनय के साथ पूछा और सूरिजी ने सब हाल कहा। इस पर संघ अश्वरों ने सुरजी को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया कि जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न कर के जैन शासन के आधार रूप प्रभुप्रतिमा की रक्षा की है इत्यादि । उपस्थित लोगों में से किसी ने कहा कि केवल धन्यवाद देने से ही आपकी भक्ति नहीं हो जाती है पर अपने श्राचार्य अकेले शोभा नहीं देते हैं अतः अपने २ पुत्रों को सूरिजी के शिष्य बना कर शासन की शोभा को बढ़ाइये । सच्ची भक्ति तब ही कही जायगी । शासन-शुभचिन्तकों ने उसी बैठक पर एक चिट्ठा (टीप) लिखा । और कहा कि कौन कितने पुत्र देंगे ? इस पर किसी ने एक लिखाया, किसी ने दो लिखाया इस प्रकार एकादश, नवयुवकों को लाकर सूरिजी की सेवा में भेंट कर दिया जिन्हों को सूरिजी ने दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये शिष्यों का चिट्ठा अभि चालुही था । न जाने इस चिट्ठा में कितने भावुकों के नाम लिखे गये होंगे
अहाहा ! धन्य है उस समय के श्रावकों को कि धर्म रक्षा के निमित्त पैसों की भांति चिट्ठा मांड कर अपने प्यारे पुत्रों को सूरिजी के चरणों में अर्पण कर दिये जिससे सूरिजी का कितना उत्साह बढ़ा होगा ? इधर एकादस युवकों को सूरिजी ने दीक्षा दी और उधर से मूर्तियां लेकर जानेवाले सब मुनि गा तथा म्लेच्छों ने पकड़ लिये थे वे मुनि भी लौट कर सूरिजी के पास आकर शामिल हो गये ।
आचार्य यक्ष देवर का समय दशपूर्वघरों का समय था । उस समय मूर्त्तिवाद अपनी उत्कृष्ट हद पर पहुँचा हुआ था । आचार्य बज्रसूरि बीस लक्ष पुष्प पूजा के लिये लाये थे । आचार्य यक्षदेवसूरि के साधु रात्रि में सिर पर मूर्त्तियें उठा कर स्थानानन्तर जाकर मूर्तियों की रक्षा की। उस समम रत्न और सुवर्ण मय मूर्त्तियां बनाई जाती थीं । एक एक मन्दिर तथा एक एक संघ में करोड़ों द्रव्य व्यय किया जाता था और उन पुन्य काय्यों से उनके पास लक्ष्मी भी अखूट हो रहती थी ।
इस प्रकार जैनधर्म का रक्षण करते हुये सूरिजी महाराज क्रमशः विहार करके श्राघाट नगर में पधारे वहां भी सूरिजी के उपदेश से बहुत भावुकों ने सूरिजी के पास दीक्षा धारण की ।
ततः पुनर्यक्षदेव सूरयः केचनाभवन् । विहरन्तः क्रमेणेयु, स्ते श्रीमुग्धपुरे वरे ॥ जाते म्लेच्छ भये तस्मि, न्नुदन्ताधिगमायते । प्राहैपुः शासनसुरी, साधृता म्लेच्छदेवतैः ॥ तेचागत्यान्वहं प्रोचु, म्लेच्छः सन्ति स्वमंदिरे | तद्वचः प्रत्ययात् पूज्या, स्तदेवा कथयन् जने ॥ देवकांड इवाकस्मा, न्म्लेच्छ सैन्ये समागते । एत्य शासनदेवीद्रा, गूचे म्लेच्छा समागताः ॥ विश्वासे तव संनद्ध, स्त्वं चिरादागता कथम् । किं करोमि प्रभो ! तैस्तु, बद्वाहं व्यंतरेर्यतः ॥ सम्प्रत्येव विमुक्तास्मि तत्किं मे दूषणं प्रभो । इत्याख्यायगता देवी, सूरिर्देवगृहेगमत् ॥ देवताऽवसरं दत्वा, प्रैषीत् साधु द्वयं प्रभुः । मुनि पंचशतीयुक्तः, कार्यों सर्गे स्वयं स्थितः ॥ प्रतिमास्था धृताः केऽपि, मारिता केऽपि साधवः । सूरिं बंदिस्थितः श्राद्धो, म्लेच्छी भूतोन्नृप्यमोचयत् ॥ दत्वा सह स्वपुरुषानू, खट्टकूपपुरे प्रभुम् । प्रापयच्च सुखेनैव, भाग्यं जागर्तियन्तृणाम् ॥ श्रावस्तत्र वास्तव्यै, ददिरे निज नंदनाः । दीक्षयामास भगवां, स्तानेकादश संमितान् ॥ द्वावण्यागत्य मिलितौ, गृहीत्वा देवतास्मरम् । तत अघाट नगरे, गात् प्रभुः सपरिच्छदः ॥ तत्राऽपि श्रात्रकाः पुत्रान्, गच्छीद्धति कृते ददुः । केऽपि संसार वैराग्याद्, दीक्षामाददिरे स्वयम् ॥ श्री वीक्रमादेकशते, किंचदभ्यधिके गते । तेऽजायन्त यक्षदेवा, चार्या वर्य्यं चरित्रिणः ॥ स्तम्भतीर्थे पुरे संघ, कारितः पितलामयः । श्री पार्श्वस्थापितो येन, मंदिरेय मुनीश्वरेः ॥
[ श्रावक वर्ग की उदारता
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उप० च०
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