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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
वाला आता था तो उनको चन्द्रादि मुनियों के ही शिष्य बना दिये जाते थे। अतः चारों मुनियों के शिष्य भी गहरी तादाद में हो गये। अतः यक्षदेवसूरि ने उन चारों मुनियों को योग्य समझ कर सूरि पद से विभूषित किया । तदन्तर उन चारों सूरियों ने प्राचार्य यक्षदेवसूरि का महान उपकार मानते हुये सूरिजी की आज्ञा लेकर विहार किया। प्राचार्य यक्षदेवसूरि का प्रभाव ही ऐसा था कि आपके दिये हुए ज्ञान और सूरि पद से वे चारों सूरि महान प्रभाविक हुये। और उन चारों के नाम से चार कुल प्रसिद्ध हुये जैसे चन्द्र. कुल, नागेन्द्रकुल, निर्वृतिकुल और विद्याधर कुल । ___ कल्पसूत्र की स्थविरावली में श्रार्यबज्रसैन के चार शिष्यों से चार शाखायें निकली जैसे-- १-आर्य नागल से नागली शाखा निकली २-~आर्य पौमिल से पौमिली शाखा निकली ३-आय्य जयन्त से जयन्ति शाखा निकली ४-आर्य तापस से तापसी शाखा निकली
इन चार शाखाओं के अलावा चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृति और विद्याधर का नाम कल्पसूत्र की स्थवि. रावली में नहीं आया है । शायद इसका यह कारण हो सकता है कि आर्य्य बज्रसैन के पहिले नागलादि चार शिष्य मुख्य होंगे कि जिन्हों का उल्लेख कल्पसूत्र में कर दिया। बाद में दुष्काल के अन्त में चन्द्रादि चार मुनियों को दीक्षा दी और बज्रसैन का तुरत ही स्वर्गवास हो गया और वाद में यक्षदेवसूरि के करकमलों से इनको सूरि बनाये थे । अतः कल्पसूत्र में इनका नामोल्लेख नहीं किया हो तो कोई विरोध की बात नहीं है । कारण विक्रम की दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के प्रन्थों में इन चन्द्रादि चारों कुनों के प्रमाण मिलते हैं । और इन कुलों की परम्परा संतान में महान प्रभाविक आचार्य हुए हैं जैसे कि
१-चन्द्रकुल में-अभय देवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, शान्तिसूरि, जगचन्द्रसूरि आदि आचार्य २-नागेन्द्रफुल में-आचार्य उदयप्रभसूरि, मल्लीषणसूरि आदि आचार्य ३-निवृति कुल में-दुणाचार्य, सूराचाय, गर्षि, दुर्गषि, सिद्धर्षि आदि आचार्य
५- विद्याधर कुल में-जिनदत्तसूरि और आपके शिष्य १४४४ ग्रन्थों के कर्ता हरिभद्रसूरि इत्यादि उल्लेख मिलते हैं। हाँ, पहिले ये चारों कुलों के गम से प्रसिद्ध थे पर बाद में इन कुलों ने गच्छों का रूप धारण कर लिया। अतः शिलालेखों एवं ग्रन्थ प्रशस्तियों में चन्द्रगच्छादि के नाम से भी उल्लेख दृष्टि गोचर होते हैं जिसको हम आगे चल कर यथा समय लिखेंगे।
आचार्य यक्षदेवसूरि का जैन समाज पर अर्थात् आज जितने गच्छ विद्यमान हैं उन सब पर बड़ा भारी उपकार है । कारण, जैन संसार में जितने गच्छ पैदा हुये थे उन चार कुलों से ही हुये है और चार कुलों के संस्थापक आचार्य यक्षदेव सूरि ही थे।
___इनके अलावा उस समय बार-बार दुकाल का पड़ना, विधर्मियों के संगठित हुमले होना जिससे विस्तृत क्षेत्र में फैले हुये जैन समाज का रक्षण करना कोई साधारण बात नहीं थी । पर उन शासन रक्षक वीर आचार्यों ने हजारों मुसीबतों को सहन कर जैनधर्म को जीवित रक्खा । यदि उन महान् उपकारी महात्माओं का हम क्षण भर भी उपकार भूल जावें तो हमारे जैसा कृतघ्नी संसार में कौन होगा ?
इतिहास पढ़ने से ज्ञात होता है कि विक्रम पूर्व दो तीन शताब्दियों से विदेशियों के भारत पर आक्रमण होने शुरू हुये थे और वे क्रमशः विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक चालू ही रहे थे। आचार्य यक्षदेव
सूरि के समय भी विदेशियों के आक्रमण खूब जोरों से हो रहे थे उन अनार्यों ने धनमाल लूटने में भार• Jain E 10 nternational
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