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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५–५५७ यह है कि दशपूर्वधर आचार्य श्री बज्रसूरि के सदृश्य अनेक गुणनिधि महाप्रभाविक श्राचार्य यक्षदेवसूरि भूमण्डल पर विहार करते थे, उससमय बारहवर्षीय जनसंहार करने वाला भीषण दुष्काल पड़ा था। जब धनिक लोगों के लिये मोतियों के बराबर ज्वार के दाने मिलने मुश्किल हो गये थे तो साधुओं के लिए भिक्षा का तो कहना ही क्या था ? यदि कहीं थोड़ी बहुत भिक्षा मिल भी जाय तो सुख से खाने कौन देता था ? उस भयंकर दुष्काल में यदि कोई व्यक्ति अपने घर से भोजन कर तत्काल ही बाहर निकल जावे तो भिक्षुक उसका उदर चीर कर अन्दर से भोजन निकाल कर खा जाते थे । इस हालत में कितने ही जैनमुनि अनशन पूर्वक स्वर्ग को चले गये। शेष रहे हुए मुनियों ने ज्यों त्यों कर उस अकाल रूपी अटवी का उल्लंघन किया जब दुकाल के अन्त में सुकाल हुआ तो उस समय एक आचार्य यक्षदेवसूरि ही अनुयोगधर एवं मुख्याचार्य रहे थे कि दुकाल से बचे हुए साधु साध्वियों को एकत्र कर पुनः संगठन कर सके अतः उन शासन शुभचिन्तक आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने साधु साध्वियों के साथ ही साथ आर्य बज्रसूरि के साधु साध्वियों को भी एकत्र किये तो ५०० साधु ७०० साध्वियां ७ उपाध्याय १२ वाचनाचार्य ४ गुरु पदधर २ प्रवृतक २ महत्तर (पद विशेष ) १२ प्रवर्तनी २ महत्तरिका इत्यादि । परन्तु दुकाल की भीषण भार से इन सब का पठन पाठन बन्ध सा हो गया था पूर्व पढ़ा हुआ ज्ञान भी प्रायः विस्मृत सा हो गया। उस समय अनुयोगधार केवल एक प्राचार्य यक्षदेव सूरि ही रह गये थे अतः उन साधुओं को आगमों की वाचना के लिये सोपार पट्टन नगर योग्य समझ कर श्रीसंघ की अत्याग्रह से सब साधु साध्वियों सोपारपट्टन की ओर पधार रहे थे। आर्य बज्रसेनसूरि सोपारपट्टन पधार कर जिनदास सेठ की ईश्वरी सेठानी के चन्द्र नागेन्द्र निवृति और विद्याधर नाम के चार पुत्रों की दीक्षा दी थी और आप भी अपने शिष्यों के साथ वहीं विराजते थे। जिस समय आचार्य यक्षदेवसरि सोपारपट्टन पधारे उस समय आर्य बनसेन अपने शिष्यों के साथ तथा वहाँ का श्रीसंघ ने सूरिजी का खूब उत्साह पूर्वक स्वागत किया। जब आचार्य यक्षदेवसूरि श्रमणसंघ को वाचना देना प्रारम्भ किया तो बज्र सेनसूरि के शिष्य चन्द्र नागेन्द्र निति और विद्याधर भी आगम वाचना लेने में शामिल हो गये थे सब मुनियों की वाचना चलती ही थी बीच में ही आर्य बज्रसैनसूरि का आकस्मात् स्वर्गवास हो गया । इस प्रकार गुरु महाराज का वियोग सब के लिये दुःख प्रद था पर उन नूतन शिष्यों के लिये तो और भी बड़ा भारी रञ्ज का करण हुआ पर आचार्य यक्षदेवसूरि ने उनको धैर्य दिलाया और कहा कि इस बात का तो मुझे भी बड़ा भारी रंज है पर इसका उपाय ही क्या है । जैसे ज्ञानियों ने भाव देखा वह ही हुआ है । तुम किसी प्रकार से घबराना नहीं मैं तुमको ज्ञान दूंगा और शिष्य समुदाय बना कर पदवी प्रदान कर दूंगा कि आप अपने शासन का संचालन करने में समर्थ बन जाओगे इत्यादि । जब साधुओं के आगम बाचना समाप्त हुई तो सूरिजी का महान उपकार मानते हुए साधु सूरिजी की आज्ञा लेकर विहार किया। और चन्द्रादि चारों मुनि सूरिजी की सेवा में ही रहे । इस वाचना के पूर्व जैनागम पुस्तकों पर प्रायः नहीं लिखे गये थे यदि थोड़ा बहुत लिखा भी होगा तो दुष्काल के कारण नष्ट भ्रष्ट हो गया होगा अतः सूरिजी ने भविष्य का विचार कर के श्रावकों को उपदेश दिया कि कई श्रावकों ने द्रव्य व्यय कर के जितने आगमों की वाचना हुई थी उन सबकों पुस्तकों अर्थात् ताड़पत्रादि पर लिखवा लिया कि भविष्य में ज्ञान विच्छेद नहीं हो सके । उस समय जो कोई दीक्षा लेने Jan Ea आयं बनसेन और पट्टन] For Private & Personal Use Only For Private & Personal use Only ५०५ www.janelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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