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________________ आचार्य ककसूर का जीवन ] [ औसवाल संवत् ५८ इधर देवगुप्त ने सूरिजी को बगीचा में ठहरा कर सीधा ही राजभुवन में गया और अपने पिता से मिल कर सब हाल उनको सुना कर कहा कि पूज्य पिताजी ! भला हो इन महात्माजी का कि काल के मुंह में गये हुए को मुझे बचा लिया इत्त्यादि । उस घृणित दुराचार का वर्णन करते हुए देवगुप्त का सब शरीर कांप उठा था, जिसको देख राजा ने उन मठपतियों की घातक वृति पर बहुत अफसोस किया और अपने पुत्र को जीवन दान देने वाले आचार्यश्री के प्रति भक्ति भाव से प्रेरित हो देवगुप्त को साथ ले आचार्यश्री के चरणों में हाजिर हुआ और नमस्कार कर बोला 'भगवान ! आपने मेरे पर बड़ा भारी उपकार किया इसका बदला तो मैं किसी प्रकार से नहीं दे सकता हूँ, पर अब आप अपने भोजन के लिए फरमावें कि आप भोजन बनावेंगे या हम बनवा लावें " । आचार्य―न तो हम हाथ से रसोई बनाते हैं न हमारे लिए बनाई रसोई हमारे काम में श्राती है और हमको इस समय भोजन करना भी नहीं है। बहुत से साधुओं के तपश्चर्या भी है, इधर सूर्य भी अस्त होने की तैयारी में है और सूर्यास्त होने के बाद हम लोग जलपान तक भी नहीं करते हैं । देवगुप्त - भगवान् ! ऐसा तो न हो कि आप भूखे रहें और हम भोजन करें। अगर आप अन्नजल नहीं लें तो हम भी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम भी अन्नजल न लेंगे । बस, देवगुप्त ने भी उस रात्रि सूरि जी का अनुकरण किया अर्थात् अन्नजल नहीं लिया । इसका नाम ही सच्ची भक्ति है । देवगुप्त ने सूरिजी के अन्य साधुओं की खबर लेने को आदमी भेजे तो रात्रि में ही खबर मिल गई थी कि नगरी से थोड़े ही फासले पर एक पर्वत के पास सूर्य्यास्त हो जाने पर सूरिजी महाराज की राह देखते हुये सब साधु वहाँ ही ठहरे हैं । देवगुप्त ने यह समाचार सूरिजी महाराज के कानों तक पहुँचा दिया, मुनिवर्ग अपने ध्यान में मग्न हैं । इधर भद्रावती नगरी में उन पाखण्डियों की पापवृति के लिये जगह २ धिकार और आचार्यश्री की परोपकार-परायणता के लिये भूरि २ प्रशंसा हो रही थी । सूर्योदय होने के पश्चात इधर तो आचार्य श्री ने अपनी नित्य क्रिया से निवृत्ति पाई, उधर राजा प्रजा बड़े ही उत्साह एवं समारोह के साथ सूरिजी महाराज के दर्शनार्थ और देशनारूपी अमृतपान करने की अभिलाषा से असंख्य लोग श्राकर उपस्थित हो गये। सूरिजी महाराज ने भी धर्मलाभ के पश्चात देशना देनी प्रारम्भ की। आचार्य ककसूरिजी महाराज बड़े ही समयज्ञ थे । श्रापने अपने प्रभावशाली व्याख्यान द्वारा उन पाखण्डियों की घोर हिंसा और व्यभिचार वृत्ति पर कड़ी आलोचना की, जिसको सुन कर जनता को उन पाखण्डियों की पाप वृत्ति पर घृणा आने लगी इत्यादि । सूरिजी के व्याख्यान का उपस्थित लोगों पर इतना प्रभाव हुआ कि राजा और प्रजा एकदम सूरिजी महाराज मण्डेली झण्डा के नीचे जैनधर्म की शरण में आ गये अर्थात जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार हो गये श्राचार्य श्री ने भी अपने वासक्षेप से उनको पवित्र बना कर जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा दे, जैनी बना लिए। इतना ही नहीं, पर महाराजकुमार देवगुप्त ने तो प्रतिज्ञापूर्वक कह दिया कि मैं तो सूरिजी महाराज के समीप दीक्षा लेकर कच्छ देश एवं जननी जन्मभूमि का उद्धार करूंगा । । जैसे दिन प्रतिदिन आचार्यश्री का व्याख्यान होता रहा वैसे जैनधर्म का प्रचार बढ़ता गया तथा सदाचार की वृद्धि के साथ साथ दुराचार के पैर भी उखड़ते गये। इनके अलावा जैन मन्दिर और जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only २३७ www.jalnenbrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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