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________________ वि० पू० ३४२ वर्ष [ भगवान् पाश्वनाथ को परम्परा का इतिहास विद्यालयों की खूब मजबूत नीवें डाली जा रही थीं कि भविष्य के लिए भी जनता में जैनधर्म की सुदृढ़ श्रद्धा और ज्ञान का प्रचार होता रहे। प्राचार्यश्री की आज्ञानुसार कई मुनि श्रआस पास के ग्रामों में उपदेश कर अहिंसा धर्म का प्रचार भी किया करते थे। कच्छ प्रदेश में कई असें से जैन धर्म का नाम तक लुप्त सा हो गया था, पर इस समय प्राचार्य श्री कक्कसूरिजी ने फिर से जैन धर्म का बीज बो दिया। इतना ही नहीं, पर उनके सुन्दर अंकुर भी दिखाई देने लग गये थे। महाराज कुमार देवगुप्त और उनके सहचारी १२५ नरनारी जो जैन दीक्षा के लिए उम्मीदवार थे उन्हें सूरिजी महाराज ने बड़े ही समारोह से जैन दीक्षा दी और हजारों नहीं पर लाखों लोगों को जैनधर्मापासक बनाये । राजा प्रजा का अत्याग्रह देख तथा भविष्य के लाभालाभ पर विचार कर आचार्यश्री ने वह चतुर्मास भद्रावती नगरी में ही किया। आपश्री के विराजने से वहाँ पर बड़ा भारी लाभ हुआ। सद्ज्ञान के प्रचार द्वारा जनता की श्रद्धा जैनधर्म पर विशेष सुदृढ़ हो गई। आसपास के ग्रामों में भी सूरिजी महाराज का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा अर्थात् थोड़े ही दिनों में जैन. धर्म एक नवपल्लव वृक्ष की भांति फलने फूलने लग गया। चतुर्मास के पश्चात आचार्यश्री एवं मुनि देव गुप्तादि कच्छभूमि में विहार कर चारों ओर जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे। मुनि देवगुप्त ने पहिले से ही प्रतिज्ञा की थी कि मैं दीक्षा लेकर सब से पहिले अपनी मातृभूमि का उद्धार करूंगा । इसी माफिक आपने धर्मध्वज हाथ में लेकर चारों ओर पाखण्डियों की पोप लीला यज्ञ होमादि में असंख्य प्राणियों की होती हुई घोर हिंसा और दुराचारियों की व्यभिचार-वृत्ति समूल नष्ट कर जहाँ तहाँ अहिंसा भगवती का ही प्रचार किया। जैनधर्म का खूब झण्डा फहराया। आचार्यश्री ककसूरि जी ने जैसे महान परिश्रम उठाया था वैसे ही आपश्री को महान् लाभ भी प्राप्त हुआ कारण कच्छभूमि में जनधर्म का प्रचार किया, सैकड़ों मुनियों को दीक्षा दी, सैकड़ों जनमन्दिरों की प्रतिष्ठा और कई जन. विद्यालयों की स्थापना करवाई, लाखों लोगों को जनधर्मोपासक बनाया इत्यादि। आपने अपने पूर्ण परिश्रम द्वारा अधोगति में जाती हुई जनता का उद्धार किया ! जिस समय मरुस्थल का श्रीसंघ सूरिजी महाराज की विनती के लिए आया था उस समय कच्छ में तीर्थाधिराज श्री सिद्धगिरि की यात्रा निमित्त संघ की बड़ी भारी तैयारियां हो रही थीं. पट्टावलिकारों ने इस संघ के लिए इतना वर्णन किया है कि सिन्ध और कच्छ के सिवाय मरुस्थलादि प्रान्तों के अनेक लोगों से कच्छ मेदिनी विभूषित हो रही थी, हजारों हस्ती रथ अश्व वगैरह सवारियाँ और सोना चांदी के देरासर रत्नों की प्रतिमायें श्रादि बहुत श्राडम्बर से संघ के लिए साम्रप्री तैयार हो रही थी तथा अनेक वाजित्रों से गगन गूंज उठा था । करीबन पांच हजार साधु साध्वि और लाखों गृहस्थ यात्रा निमित्त संघ में एकत्र हुए थे । इस में मुख्य प्रेरक मुनि देवगुप्त ही थे और आपको इस बात का बड़ा ही आनन्द भी आता था। सूरिजी महाराज के दिये हुए शुभ-मुहूर्त से महाराजा शिवदत्त के संघपतित्व में संघ रवाना हुआ। क्रमशः तीर्थ यात्रा करता हुआ श्री सिद्धगिरि का दूर से दर्शन करते ही हीरा, पन्ना और मुक्ताफल से तीर्थ पूजा की और सूरिजी महाराज के साथ भगवान् आदीश्वर की यात्रा कर सब लोगों ने अपने जीवन को पवित्र किया । इस सुअवसर पर प्राचार्यश्री ने देवगुप्त को योग्य समम श्री संघ के समक्ष सिद्धाचल की शीतल छाया में वासक्षेप के विधि-विधान से आचार्य पद से विभूषित कर अपना भार आचार्य देवगुप्तसूरि .२३८ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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