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________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५८ को सुपुर्द कर दिया। प्राचार्यश्री की समय-सूचकता को देख श्रीसंघ में बड़ा ही हर्ष और आनन्द मंगल छा गया। सिद्धिगिरि की यात्रा के पश्चात आचार्य देवगुप्त सूरि की अध्यक्षता में संघ वापिस लौट गया और आचार्य ककसूरि सौराष्ट्र लाट वगैरह में विहार कर मरुभूमि की और पधार गये : अर्बुदाचल की यात्रा कर चन्द्रावती, शिबपुरी, पद्मभावती साचउर और श्रीमालादि क्षेत्र को पावन करते हुए आप कोरंटपुर पधारे वहां प्राचार्य सोमप्रभसूरि आदि हजारों साधु साध्धियां आपश्री के दर्शनों की पहिले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे। राजा प्रजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का बड़ा भारी गहोत्सव किया, कितनेक दिन वहां विराज के चिरकाल से देशना-पिपासु भव्य जीवों को धर्मोपदेश से संतुष्ट किया । श्राचार्यश्री की अध्यक्षता में कोरंटपुर के श्रीसंघ ने एक विराट सभा करने को आस-पास में विहार करने वाले साधु साध्वियों और अनेक ग्राम नगरों के श्रीसंघ को आग्रह पूर्वक आमन्त्रण भेजा। इस पर प्रथम तो आचार्यश्री का चिरकाल से पधारना हुआ इस वास्ते उनके दर्शन का लाभ, दूसरा यह प्राचीन तीर्थरूप स्थान है भगवान महावीर की मूर्ति का दर्शन, तीसरे श्रीसंघ एकत्र होगा उनका दर्शन, चौथे श्राचार्यश्री की अमृतमय देशना का लाभ और हजारों साधु साध्वियों के दर्शन, पांचवे धर्म और समाज-सम्बन्धी अनेक सुधार होंगे इत्यादि कारणों को लेकर हजारों साधु साध्वियां और लाखों श्रावक श्राविकायें एकदम एकत्र हो गये। देवगुरु और श्रीसंघ के दर्शन एवं यात्रा के पश्चात सूरिजी महाराज के मुखारविन्द की देशना पान के लिये सब की अभिलाषा हो रही थी। उस समय जनता की धर्म पर कैसी श्रद्धा थी जिसका यह नमूना है। सूरीश्वरजी महाराज ने चतुर्विध संघ के अन्दर खड़े हो अपनी वृद्धवय होने पर भी बड़ी बुलन्द आवाज से धर्मदेशना देना प्रारम्भ किया । आपश्री ने अपने व्याख्यान के अन्दर श्रमणसंघ की तरफ इशारा कर फरमाया कि प्यारे श्रमणगण ! आप जानते हो कि एक प्रान्त में भ्रमण करने की अपेक्षा देश-देशान्तर में विहार करने से स्वपरात्मा का कितना कल्याण होता है वह मैं अपने अनुभव से आपको बतला देना चाहता हूँ कि प्राचार्य स्वयम्प्रभसूरि ने पूर्व से पधार कर श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी में हजारों नये जैन बनाये । आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में लाखों श्रावक बनाये, आचार्यश्री यक्षदेवसूरि ने सिन्ध जैसे देश को जैनमय बना दिया, इतना ही नहीं पर मेरे जैसे पामर प्राणियों का उद्धार भी किया। मेरे विहार के दरम्यान कच्छ जैसा पतित देश भी श्राज जैनधर्म का भली-भांति आराधन कर स्वर्ग मोक्ष के अविकारी बन रहे हैं। अभी तक ऐसे प्रान्त भी बहुत हैं कि जहां पूर्व जमाने में जैनध' का साम्राज्य वरत रहा था, आज वहां जैनधर्म के नाम को भी नहीं जानते हैं, उस प्रदेश में जैनमुनियों के विहार की बहुत जरूरत है। आशा है कि विद्वान मुनि कमर कस के तैयार हो जायंगे। साथ में आपश्री ने फरमाया कि जैसे मुनिवर्ग का कर्तव्य है कि देश विदेश में विहार कर जैनधर्म का प्रचार कर, जैसे श्राद्धवर्ग का भी कर्तव्य है कि इस कार्य में पूर्णतया सहायक बनें। नूतन श्रावकों के प्रति वात्सल्य भाव रक्खें, उनके साथ सब तरह का व्यवहार रक्खें, अपने २ ग्राम नगर में जैन विद्यालय और जैन मन्दिरों का निर्माण करवा के शासनकी सेवा का लाभ हासिल करें इत्यादि । सूरीश्वरजी महाराज की देशना से श्रोताजन को यह सहज ही में ख्याल हो आया कि आचार्यश्री के हृदय में ही नहीं,पर नस २ में और रोम २ में जैनधर्म का प्रचार करने की बिजली चमक उठी है । जिसको ही आपने वाणि द्वारा व्यक्त की है। २३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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