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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] सूरि १०- हमारा एक स्थान निश्चित नहीं है, हम हमेशा घूमते ही रहते हैं । घुड़ श्राप घूम घूम कर क्या करते हो १ सूरि १०- हम जनता को धर्मोपदेश दिया करते हैं । घुड़ :- आप किस धर्म का उपदेश करते हैं ? सूरि०-- जिस धर्म से जनता का इस लोक और परलोक में कल्याण हो । - आपके धर्म का मुख्य सिद्धान्त क्या है ? घुड़०: सूरि०- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निस्पृहता । घुड़सवार मन में समझ गया कि इनका सिद्धान्त तो ठीक ही है, पर जब तक कुछ सुना नहीं जाने तब तक क्या मालूम हो सकता है। और यह तो कोई नये साधु हैं, क्योंकि मैंने पूर्व कभी ऐसे साधुओं को देखा भी नहीं है । अतः प्रार्थना की कि क्या आपका धर्म मैं भी सुन सकता हू १ सूरिजी - खुशी के साथ आप धर्म सुन सकते हैं । घुड़० -- आप कहां पर ठहर कर धर्म सुना सकते हैं ? सूरिजी - हमारे किसी स्थान का प्रतिबन्ध नहीं है । हम तो यहां जंगल में भी धर्म सुना सकते हैं। घुड़सवार - ठीक है, तब आप अपना धर्म सुनाइये । वश ! सवार शिकार करना तो भूल गये और महात्माजी से कुछ धर्म सुनने के लिए अपने साथियों के साथ सूरिजी के पास आ कर बैठ गये । हां वे चाहे कौतूहल के वश ही बेठे हों, पर इस कारण से आगे चल कार्य क्या पैदा होता है ? सूरिजी ने अपना उपदेश सुनाना प्रारम्भ किया कि: “अहिंसालक्षणोधर्मोह्यधर्मःप्राणिनोवधः । तस्माद्धर्मार्थिभिर्लोकैः कर्त्तव्योप्राणिनांदयाः । [ ओसवाल संवत् १४ भावार्थ - धर्म का लक्षण हिंसा और अधर्म का लक्षण हिंसा है । श्रतः सद्बुद्धि वाले मनुष्यों का कर्त्तव्य है कि वह मनुष्य जन्मादि अच्छी सामग्री पा कर सदैव प्राणियों की दया रूप धर्म का आचरण करे । हे भव्यो ! इस अहिंसा धर्म में किसी धर्म का मतभेद नहीं है, अर्थात् इस धर्म के लिए सब धर्म वालों का एक ही मत है, देखिये । पंचैतानिपवित्राणिसर्वेपांधर्मचारिणाम् | अहिंसासत्यमस्तेयंत्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और त्याग इसको सब दर्शन वालों ने बड़े ही आदर के साथ माना है इसमें हिंसा मुख्य धर्म बतलाया है । अहिंसा सर्व जीवेपुतत्वज्ञैः परिभाषितम् । इदंहिमूलधर्मस्यशेषस्तस्यैवविस्तरम् || अर्थात्-संसार में जितने तत्वज्ञ महात्मा हुये हैं उन सबों ने धर्म का मूल अहिंसा बतलाया है, शेष सत्यशील वगैरह तो इसका विस्तार है। हां, दान वगैरह देना भी धर्म है, पर अहिंसा की तुलना वह भी नहीं कर सकते हैं देखिये योदद्यात्कांचनं मेरुः कृत्स्नां चैववसुंधरा । एकस्यजीवितं दद्यात् न च तुल्ययुधिष्ठिरा || श्रर्थात् एक मनुष्य सोने का मेरु दान करता है तब दूसरा मनुष्य एक मरते हुवे जीव को प्राणदान Jain Education national For Private & Personal Use Only २१७ www.jamabary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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