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________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास करता है । अतः जीवनदान करने के सामने काँचन का मेरू पर्वत एवं सुवर्ण मय पृथ्वी भी किसी गिनती में नहीं है । अतः प्राणियों को जीवन दान देना सब से श्रेष्ठ धर्म है। सर्वेवेदानतत्कुर्यसर्वेयज्ञाश्चभारतः। सर्वतीर्थभिषेकाश्च यत्कुर्यात् प्राणिना दया ॥ अर्थात् एक जीव के प्राणों को बचाने में जितना पुन्य है वह पुन्य न तो वेद पढ़ने में है, न यज्ञ करने में है और न सब तीर्थों का अभिषेक करने में है। इनके अलावा भी सूरिजी ने कई हेतु युक्ति दृष्टान्त द्वारा उन घुड़सवारों को समझाते हुये कहा कि हे महानुभावो ! श्राप जानते हैं कि इस नाशवान संसार के अन्दर धर्म ही एक ऐसा कल्पवृक्ष है कि जिसके सेवन से जीव मन इच्छित फल को पा सकता है । धर्म से ही इस भव और पर भव में सुखी बन सकता है । धन-धान्य, पुत्र, कलत्र, राजपाट, सुख, सौभाग्य, यश, कीर्ति, मान, प्रतिष्ठा ऋद्धि-सिद्धि और सर्व कार्यों में सफलता- विजय धर्म से ही मिलती है । और जिन क्षुद्र प्राणियों ने पूर्व जन्म में धर्माराधन नहीं किया है और पापाचरण में अनुरक्त रह कर अनेक प्राणियों के प्राणों को नष्ट किया है अर्थात हिंसा मूठ, चोरी और मैथुन कर्म किया है. वह इसजन्म में दीन, हीन, दुःखी, दरिद्र, दुर्भाग्य, रोग शोक से प्रसित और पराधीन रह कर अनेकानेक दुःखों का अनुभव कर रहे हैं और इन सब बातों को श्राप प्रत्यक्ष में देख भी रहे हो। और पर भव में नरकादि अनेक दुःखों को सहन करना पड़ेगा ही अतः रत्न चिन्तामणि जैसा नरभव मिला है, इसको धर्मकार्य कर सफल बनाना ही बुद्धिमत्ता है इत्यादि । थोड़े समय और थोड़े शब्दों में सूरिजी ने इस कदर उपदेश दिया कि उन सुनने वालों को पाप से घृणा होने लगी और धर्म की ओर रुचि बढ़ने लगी, एवं उन्होंकी अन्तरात्मा कुछ निर्णय की ओर प्रेरणा करने लगी। घुड़०-क्यों महात्माजी ? ऐसा कौन सा धर्म है कि जिसके करने से जीव सदैव के लिये सुखीबन सके ? सूरिजी-'अहिंसा परमोधर्म' जो मैंने अभी आपको सुनाया है। घुड़-महात्माजी ! हम हिंसा अहिंसा में नहीं समझते हैं । कृपया आप इसका स्वरूप समझाइये। सूरिजी-सुनिये ! 'अन्यस्य दुःखोत्पादनं हिंसा' किसी जीव को दुःख देना हिंसा है और दुःखी जीवों को सुखी बनाना अहिंसा है । बस, संसार में सब से बढ़िया धर्म अहिंसा है। घुड़० -- महात्माजी ! हम लोग तो हमेशा शिकार करते हैं, अनेक जीवों को मार कर उनका मांस भी भक्षण करते हैं। इस कार्य में आज पर्यन्त किसी ने पाप नहीं बतलाया है. इतना ही क्यों पर हमारे धर्मोपदेशक तो शिकार करना क्षत्रियों का धर्म भी बतलाते हैं और वे खुद भी मांस भक्षण करते हैं। सुरिजी~-बड़ा ही दुःख है कि इस भारत भूमि पर ऐसे भी धर्मोपदेशक मौजूद हैं कि शिकार करना और मांस भक्षण करना भी धर्म बतलाते हैं और वे स्वयं मांसभक्षण करते हैं। महानुभावो ! आपके कहने से मालूम होता है कि अभी आपको न तो मिला है सच्चा उपदेशक और न आपने अभी सच्चे धर्म का स्वरूप को ही समझे है । खैर मैं आपसे इतना ही पूछता हूँ कि आप एक निर्भय स्थान पर बैठे हैं और कई बदमाश मनुष्य आकर आपके एक कांटा लगा दें तो आपको दुःख होगा या आराम ? या आप उसको दंड देंगे या इनाम १ धु-महात्माजी ! कांटा लगने से कभी आराम होता है ? प्रत्युतः बड़ा भारी दुःख होता है और उस बदमाश को इनाम तो क्या पर मैं ऐसा दंडहूँ कि मारपीट कर फांसी लटका देता हूँ। Jain EducaR m ational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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