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आचार्य ककसूर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
न्याय-व्यवस्था – “सम्राट् चन्द्रगुप्त के विस्तृत साम्राज्य में न्याय के लिये एक ही न्यायालय पर्याप्त नहीं हो सकता था । इसलिये पाटलिपुत्र के बड़े न्यायालय के सिवाय अन्य अनेक छोटे बड़े न्यायालय साम्राज्य में विद्यमान थे । सब से छोटा न्यायालय 'ग्राम-संघ' का होता था, ग्राम की सभा भी अपनी ग्राम सम्बन्धी बातों का फैसला स्वयं किया करती थी । इस के ऊपर 'संग्रहरण' का न्यायालय होता था, इसके ऊपर 'द्रोणमुख' का और 'द्रोणमुख' के उपर 'जनपदसन्धि' का । जनपदसन्धि न्यायालय के ऊपर राजा का अपना न्यायालय होता था, इसमें राजा स्वयं उपस्थित होता था और उस की सहायता के लिये अन्य अनेक न्यायाधीश होते थे । ग्राम संघ और सम्राट् के न्यायालयों के सिवाय शेष पाँच श्रेणियों के न्यायालय दो भागों में विभक्त थे | दोनों की रचना और कार्य सर्वथा भिन्न २ थे । एक नाम था 'धर्मस्थीय' और दूसरे का 'कण्टक-शोधन' । धर्मस्थीय न्यायालयों में तीन ३ न्यायाधीश होते थे, इन्हें 'धर्मस्थीय' या 'व्यवहारिक' कहा जाता था । इसी प्रकार ' कण्टकशोधन' न्यायालयों में भी तीन ३ न्यायाधीश होते थे, परन्तु इन्हें 'प्रदेष्टा' कहा जाता था । अनेक विद्वानों के धर्मस्थीय को Civil और कण्टकशोधन को Criminal न्यायालय कहा है । इन न्यायालयों में किन किन विषय पर विचार होता था, न्याय किस कानून के आधार पर होता था, न्यायालयों में मुकदमे किस प्रकार किये जाते थे, अपराधी को विविध प्रकार के दण्ड किस प्रकार दिये जाते थे, गवाहों और न्यायाधीश का कर्तव्य उनके अधिकार आदि का रोचक वर्णन कौटिल्य अर्थशास्त्र में अत्यन्त विस्तार से दिया गया ।"
शिक्षा विभाग - "मौर्यकाल में शिक्षा पद्धति क्या थी, यह कह सकना बहुत कठिन है । हमें मालूम है कि उस काल में तक्षशिला जैसे स्थानों पर विश्वविद्यालय विद्यमान थे। जिन में बहुत से विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त किया करते थे। साथ ही बनों में वानप्रस्थी आचार्य लोग बहुत से शिष्यों को साथ में रख कर विद्या पढ़ाया करते थे । राज्य इनको सहायता देता था । प्रायः यह रीति थी कि आचार्यों को अपने शिक्षणालय के अनुरूप भूमि दे दी जाती थी । इसकी सम्पूर्ण आमदनी शिक्षणालय के लिये ही खर्च होती थी। बहुत से शिक्षणालय सीधे तौर पर राज्य के आधीन थे। इन शिक्षकों को राज्य की ओर से वेतन मिलता था ।" इत्यादि शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध था ।
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दान विभाग - " चन्द्रगुप्त-कालीन राष्ट्रीय व्यय का 'दान' भी बहुत महत्व पूर्ण भाग था ।... बाल, वृद्ध, ब्याधि - पीड़ित, आपत्तिग्रस्त आदि व्यक्तियों का पालन-पोषण सब राज्य की तरफ से होता था । मौर्यकाल में इन असहाय व्यक्तियों के पालन के लिये व्यवस्थित रूप से प्रबन्ध होता था । असहायों से ऐसे कार्य (चर्खा कातना आदि) कराये जाते थे जिन्हें कि ये आसानी के साथ कर सकें । और उनको परिश्रमानुसार मजदूरी अतिरिक्ति राज-कोष से भी आवश्यकतानुसार उचित सहायता दी जाती थी । इससे प्रतीत होता है कि उन दिनों आजकल जिस तरह भिखमंगों की भरमार है उन दिनों में मंगते ढूंढने पर भी न मिलते होंगे । इसके अतिरिक्त कारीगरों, कृषकों, सार्वजनिक कार्यकताओं, संस्थाओं और अन्य संगठन कार्य वगैरह के लिये राज्य की ओर से सहायता मिलती थी । देश हित बी परोपकारी मनुष्यों पर राजा की कृपादृष्टि रहती थी ।"
चिकित्सालय और स्वास्थ्य-रक्षा --- "प्राचीन भारत में चिकित्सा शास्त्र ने जो उन्नति की थी, उसका विस्तार से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं ।...... "चंद्रगुप्त के समय में चिकित्सा शास्त्र बहुत उन्नति
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