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________________ [१] नहीं है कि मेरा ज्ञान भण्डार को संभाल सके अतः मैं मेरा ज्ञानभण्डार आपकी सेवा में अर्पण करना चाहता हूँ आप उनका सद् उपयोग करावें । मैंने कहा कि ज्ञानभण्डार देखने का तो मुझे शोक है पर उसकों प्रहन कर में कहाँ लिये फिरू तथापि आपकी इच्छा तो वहीं रही। बाद हम दोनों ने फलोदी के उपकेशगच्छ के उपाश्रय का ज्ञानभंडार देखा और उसमें कई गच्छ सम्बन्धी साहित्य था उसके अन्दर से मैंने कई नोट कर लिये । इस प्रकार नोट कर लेने का तो स्थानकवासियों में भी मुझे शौक था और अभी तक मेरे पास बहुतसे नोट किये हुए पड़े भी हैं खैर जिस समयमें ओसियोंमें ठहरा हुआ था उस समय यतिजीने अपना ज्ञानभंडार मेरे नाम पर ओसियों भेज दिया मैंने उसका अवलोकन किया जिसमें उपकेशगच्छ सम्बन्धी पट्टावलियो वंशावलियाँ व आचार्य के जीवन वगैरह थे मैंने रख लिया शेष जितने हस्तलिखित एवं मुद्रित पुस्तकें थी तथा मेरे पास हस्तलिखित आगम वगैरह थे वे सबके सब श्रोसियों में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानभण्डार की स्थापना कर उसमें अर्पण कर दिये जिसकी लिस्ट में जिन जिन दातारों की ओर से मुझे पुस्तक मिली थीं उनके ही नाम लिखादिये। २-उपकेशगच्छीय यतिवर्य माणकसुन्दरजी राजलदेसर वाले सं० १९७४ जोधपुरके चतुर्मासमें मेरेसे मिले उन्होंने भी अपने पासके प्राचीन साहित्य जिसमें भी स्वगच्छ सम्बन्धी बहुत साहित्य था एवं एक उपकेशगच्छ की विस्तृत पट्टावली जो मारवाड़ी भाषा में लिखी हुई थी तथा श्री पूज्यों के दफ्तर की वंशावलियों तथा राजा बादशाहों से मिले हुए पट्टे परवाने सिनन्दे वगैरह भी थी इनके अलावा कोरंटगच्छाचार्यों की एक वही जो कोरंटगच्छ के श्रीपूज्यों बीकानेर आये थे तब दे गये थे उस बही में कोरंटगच्छाचार्यों ने अजैन क्षत्रियों को जैन बनाये और बाद में कई कारणों से उनकी जातियाँ बन गई थी उन जातियों की उत्पति या वंशावलियों और उनके किये हुए धर्म कार्यों का विस्तृत लेख थे वह भी साथ लाये थे यतिवर्य गच्छ के पक्के अनुरागी थे और अपने गच्छ का उत्थान करना भी चाहते थे। मैंने यतिजी के लाये हुए साहित्य से बहुत से नोट कर लिये उन्होंने कहा कि यह सब आपके ही पास रखें पर मैंने इन्कार कर दिया और कहा कि जब मुझे जरुरत होगी तब मंगवालूगा पर भवितव्यता कि वे मेरे से मिलने के बाद थोड़े ही जीवित रहे ३-यतिवर्य प्रेमसुन्दरजी आपने भी उपकेशगच्छ चरित्रादि कई साहित्य मुझे दिखाया जिसमें उपकेशगच्छ चरित्र तो कई दिन मेरे पास रहा मैंने उसकी प्रति उतरा कर मूल प्रति वापिस देदी। ४-जब मैंने नागोर चतुर्मास किया था वहां भी उपकेशगच्छीय उपाश्रय से मुझे बहुत साहित्य देखने को मिला कई बादशाही पट्टे परवाने भी देखे। ५-वहाँ से जब मैं खजवाने आया वहाँ पर भी उपकेशगच्छ की एक शाखा की गादी है भट्टारक देवगुप्त सूरि (प्रसिद्धनामगुरांमुकतजी)थे उन्होंने मुझे स्वगच्छ का त्यागी साधु समझ कर बड़े ही सम्मान के साथ अपने उपाश्रय ले गये और अपने पास का विस्तृत ज्ञान भंडार दिखाया और कहा कि मेरे कोई योग्य शिष्य नहीं है इन पुस्तकोंसे आपके उपयोगमें आवे तो श्राप कृपाकर लिरावें आपके ज्ञान कोष को मैंने तीन दिन अवलोकन किया और आगमों के अलावा व्याकरण न्यायादि तथा ज्योतिष वैद्यक के भी बहुत से प्रन्थ थे और गच्छ सम्बन्धी पट्टावलियों तथा वंशावलियों के बड़े बड़े पोथे और लम्बे लम्बे भुगले भी थे जिनमें उपकेशगच्छ के मूल ४० गौत्रों की वंशावलियों तथा उन्होंके किये हुए धर्म कार्य तथा तलाब कुए बापियों धर्मशालाएं आदि जन कल्याणार्थ दुष्कालादि में महाजनों ने करोड़ों द्रव्य व्यय कर मनुष्यों को अन्न और पशुओं को घास दे उनके प्राण बचाये तथा बहुत से वीर पुरुष युद्ध में काम श्राये उनकी स्त्रियाँ सतियाँ हुई के भी उल्लेख थे। मैंने इसी कार्य के लिये खजवाने में कई २४ दिन ठहर कर बहुत से नोट कर लिये ।। ६-खजवाने में महात्मा घासीरामजी छोगमलजी तनसुखदासजी की पौसाल है और वे महाजनों की वंशावलियां भी लिखते हैं तथा बहुत वृद्ध होने से उनको स्वगच्छ सम्बन्धी बहुत बातों का ज्ञान भी था उनके पास से भी मैने बहुत नोट किया था वे भी गच्छ के पक्के अनुरागी थे यही कारण है कि इसी काम के लिये सनसुखदासजी मेरे पास ७-८ वर्ष रहे और इस विषय की सामग्री के लिये स्वगच्छ और परगच्छ की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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