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वि० पू० वर्ष २१३
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भगवान् महावीर प्रभु की परम्परा भगवान महावीरकेअष्टम पट्टपर दो आचार्य हुए १-आचार्य महागिरि २-आचार्य सुइस्ती इनके विषय श्राप आचार्य स्थूलभद्र के जीवन में पढ़ चुके हैं कि इन दोनों की दीक्षा आचर्य श्री स्थूलभद्र के करकमलों से हुई थी और आचार्यस्थूलभद्र इन दोनों को अपने पट्टपर प्राचार्य बनाये थे दोनों आचार्य दशपूर्व धर थे तथा आचार्य महागिरि गच्छ नायक थे तब श्राचार्य सुहस्ति गच्छ के साधुओं की सारसंभाल किया करते थे।
___ श्राप पिछले प्रकरण में पढ़ पाये हैं कि प्राचार्य सुहस्तिसूरि एक समय अपने शिष्य मण्डल के साथ जीवितस्वाति की यात्रार्थ उज्जैन पधारे थे वहां के श्रीसंघ ने बड़ेही समारोह के साथ रथ यात्रा का वरघोड़ा निकाला था जिसमें सूरिजी भी शामिल थे जब वरघोड़ा राज महल के पास आया तो वहां का राजा सम्प्रति झरोखे में बैठा हुआ वरघोड़ा के साथ आचार्य सुहस्तिसूरि को देखा और खूब ध्यानपूर्वक विचार किया तो उनको जातिस्मरण ज्ञान हो आया और राजासम्प्रति महल से उतर कर सूरिजी के चरणकमलों में वन्दन कर कहाँ भगवान् । श्राप मुझे पहचानते हो ? सूरिजी ने उपयोग लगा कर ज्ञानद्वारा राजा का पूर्वभव कहा कि आप पूर्वभव में एक भिक्षु थे मेरे पास दीक्षाली थी जिस एक दिन की दीक्षा से ही आपको इस प्रकार की ऋद्धि मिली है इत्यादि । इस पर राजा सम्प्रति ने कहा कि प्रभो ! आपका कहना सत्य है श्रय श्राप कृपाकर इस मेरा राज ऋद्धि को स्वीकार करावे कारण यह सब आपकी कृपा से हो मिला है। सूरिजी ने कहा कि हम निम्रन्थों एवं निस्पृहियों को राज एवं ऋद्धि से क्या प्रयोजन है यदि आपकी ऐसी ही भावना है तो इस राजऋद्धि का प्रयोग जैनधर्म का प्रचार के लिये करे कि जिस जैन धर्म के प्रभव से मिला है और भविष्य में भी आपका कल्याण हो इत्यादि । राजने सूरि का कहना शिरोधार्य कर उसी समय सूरिजी के पास जैनधर्म स्वीकार लिया और उसी समय से वह जैनधर्म का प्रचार करने में सलग्न हो गया जिसको हम सम्राट् सम्प्रति के जीवनमें विस्तार से लिख आये हैं और उज्जैन में श्रमण सभा का हाल इसी प्रकरण में ऊपर लिख आये है।
राजा सम्प्रति-सूरिजी का ही नहीं पर जैन साधुओं का परम भक्त बन गया और जातिस्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव की स्मृति करने से उसने यह भी जान लिया कि भिक्षुओं का जीवन किस दुखमय व्यतीत होता है वे अपनी उदर पूर्ति कैसी मुश्किल से करते हैं अतः उन लोगों के सुविधा के लिये राजा ने अपने नगर के चारों दरवाजों पर दानशालाएं एवं भोजनशालाऐं खुलवादी कि कोई भी भिक्षार्थी आवे उनको भोजन वगैरह दिया करो । जब साधारण भिक्षुओं के लिए भी राजा की इतनी उदारता थी तो जैन श्रमणों के लिये तो कहना ही क्या था राजा ने नगर के सब व्यापारियों को कहला दिया कि कोई भी श्रमण किसी प्रकार के पदार्थों की इच्छा करे, तुम बड़ी खुशी से दिया करो और उसका मूल्य राज खजाने से ले जाया करो इत्यादि । यही कारण था जैन श्रमणों को प्रत्येक पदार्थ बड़ी सुलभता से मिलने लगा वह भी प्रचूरता से । फिर साघू लाने में एवं उपभोग करने में कमी क्यों रखें।
एवंस'प्रतिराजेन स्वशक्तयाधुद्धिगर्भया । देशाः साधु विहारार्हा अनार्या अपि चक्रिरे ॥१०२॥ राझाप्राग्जन्मरकत्वं बीभत्संस्मरतानिजम् । महासत्राण्यकार्यन्त पूरेषुचतुर्वपि ॥१०३॥
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