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________________ आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् १८७ संघपति-~-बड़ा ही खुशी होकर कहाँ पूज्यवर ! आप श्रीमानों की हमारे देश और विशेष हमारे पर कृपा है अब कृपाकर इस सूरिषद के महोत्सव का आदेश मुझे ही मिलना चाहिये ? पास में बैठे हुए कई सज्जनों ने प्रार्थना की कि पूज्य गुरुदेव ! संघपतिजी ने तो संघ निकालकर बहुत लाभ उठाया है और मुनि धर्मसेन को सूरि पद देना यह भी तो मंत्रीजी को ही लाभ है तब इसका महोत्सव का लाभ तो हम लोगों को मिलना चाहिये इत्यादि बड़े ही धर्म वात्सलता के साथ उन्होंने महोत्सव किया और सूरिजी ने अपने योग्य शिष्य मुनि धर्मसेन जो मंत्री पृथुसैन का पुत्र था उसको सूरि मंत्र और वासक्षेप के विधि विधान से तीर्थराज पर आचार्य पद र विभूषीत बना कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया और अपना सर्वाधिकार नूननाचार्य को सुप्रत कर दिया बस श्रीसंघ नूतनाचार्य यक्षदेवसूरि की अध्यक्षता में वापिस लौट कर अपने नगर को आये मंत्रेश्वर ने सकल श्रीसंघ को वस्त्रभूषण की फहरामणी और एक एक सुवर्ण मुद्रिका की प्रभावना देकर उनका सत्कार किया। अहा-हा-पूर्व जमाने में जनता की धर्म पर कैसी दृढ़ मजबूत श्रद्धा एवं भावना थी वे जो कुछ सार समझते थे वे धर्म को ही समझते थे और इस शुभ भावना से वे हमेशा सुख शांति एवं समृद्ध शाली रहते थे जिसका यह एक मंत्री पृथुसेन जैसे धमात्मा पुरुषों के संघ का प्रत्यक्ष उदाहरण है। आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास वे ही साधु रहे कि जिनको सूरिजी की सेवा में रहना था सूरिजी महाराज कई अर्सा तक पूर्व बंगाल और कलिंग प्रान्त में विहार किया कलिंग की कुमार कुमारी पहाड़ियों की गुफाओं में ध्यान लगाते रहे तत्पश्चात् सम्मेतशिखर के आसपास में भी आप ने कई अर्सा तक भ्रमन कर कई मांसाहारी जीवों को प्रतिबोध, देकर जैन धर्म के उपासक बनाये आज सराक जाति जो उस तरफ विद्यमान है वह भी उन आचार्यों के बनाये हुए श्रावक ही थे हाँ चिरकाल होने से श्रावक का अपभ्रंश सराक हो गया है पर वास्तव में वे जैनधर्म पालन करने वाले श्रावक ही थे। पूज्य आचार्यश्री जब अपना अन्तिम समय नजदीक जाना तो पुनः तीर्थश्री सम्मेतशिखरजी पधार गये और अन्तिम सलेखना में सलग्न हो गये वहाँ भी आपभी के दर्शनार्थी हजारों भावुक लोग आये करते थे सरिजी महाराज २७ दिनों का अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्ग धाम को सिद्धा गये । धन्य है ऐसे सूरीश्वरों को कि आपने अपने जीवन समय में जैनधर्म का खूब ही अभ्युदय किया अनेक मांसाहारियों को प्रतिबोध देकर उनकों जैनधर्म में दीक्षित किये अनेक मुमुक्षुओं को जैनधर्म की दीक्षा देकर उनका उद्धार किया अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैनधर्म को चिरस्थायी बनाया इत्यादि आपके महान उपकार के लिये जैनसमाज सदैव के लिये ऋणी है आपके प्रति हम जितनी भक्ति भाव प्रदर्शित करे उतना ही थोड़ा है। जंगम कल्पतरू सम शोभित चिन्तामणि कहलाते थे । रत्नप्रभसूरी एकादश पट्टको आप दीपाते थे ।। द्रुतगति से मशीन शुद्धि की आपने खूब चलाई थी। ___कठिन परिसह सहन करके शासन सेवा बजाई थी। ॥ इति भगवान पार्श्वनाथ के ग्यारवें पट्ट पर आचार्यरत्नप्रभसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए । ३४३ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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