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________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ! [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कर दूर भागते थे। शाकम्भरी के राजा नागभट ने आपको वादी चक्रवर्ती का विरुद्ध इनायत किया था अतः आप वादी-चक्रवर्ती के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध थे। आचार्य श्रीसिद्धसूरि ने अपनी अन्तिम अवस्था में वाचनाचार्य रत्नभूषण को सूरि पद से विभूषित कर श्रापका नाम रत्नप्रभसूरि रख दिया था। आचार्य रत्नप्रभसूरि इस नाम में न जाने क्या जादू की शक्ति एवं बिजली सा तेज रहा हुआ था कि प्राचार्य पद प्रतिष्ठित होते ही आपका इतना प्रभाव बढ़ गया कि चक्रवर्ती की भांति अपना विजयचक्र आपके आगे आगे बढ़ता ही रहा । आप श्रीमान जिस किसी प्रांत में विहार करते उस २ प्रांत में धर्म जागृति एवं धर्मोन्नति का विजयचक्र स्थापित कर ही देते थे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने पहिला ही चतुर्मास सत्यपुर में किया और वहाँ आपने शाह लाखन के पुत्र धर्मशी आदि अष्टादश नरनारियों को दीक्षा दी और धर्मशी का नाम धर्ममूर्ति रख दिया था । वास्तव में वह एक धर्म की प्रतिमूर्ति ही था तत्पश्चात् सूरिजी ने उपकेशपुर पधार कर भगवान महावीर की यात्रा की वहाँ से आप नागपुर पधारे वहाँ अदित्यनाग गोत्रीय शाह सहजपाल के आग्रह से चर्तुमास कर व्याख्यान में श्रीभगवतीजी सूत्र बांचा जिसके महोत्सव एवं पूजा में सहजपाल ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय किया तथा चर्तुमास के बाद भद्रगोत्रिय शाह देवा ने पुनीत तीर्थ श्री सिद्धगिरि का विराट संघ निकाला। इस संघ में हजारों साधु साध्वी और लाखों भावुकों की संख्या थी संघ क्रमशः शझुंजय पहुँच कर भगवान युगादीश्वर की यात्रा की। शाह देवा ने संघ पूजा तीर्थ पूजा अष्टान्हिका एवं ध्वज महोत्सव किया। इन पुनीत कार्यों में शाह देवा ने पुष्कल द्रव्य व्यय किया। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि की इच्छा थी दक्षिण की ओर विहार करने की अतः आप तो वहीं रहे और उपाध्याय कनककुशल तथा वाचनाचार्य देवकुशल अादि मुनिगण संघ के साथ वापिस लौट आये । शाह देवा ने नागपुर में आकर स्वामि वात्सल्य किया और संघ के प्रत्येक श्रावक को सवासेर लड्डू और पांच पांच सुवर्ण मुद्रिकायें तथा वस्त्रादि की पहरामणि देकर विसर्जन किया । धन्य है ऐसे नररत्नों को कि जिन्हों की उज्ज्वल कीर्ति आज भी इतिहास के पृष्ठों पर गर्जना कर रही है । आपश्री ने पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुजय की यात्रा कर अपने शिष्य मंडल के साथ दक्षिण की ओर विहार कर दिया था । घूमते घूमते महाराष्ट्रीय प्रान्त में पधारे वहाँ की जनता में खूब ही चहल पहल मच गई। वहाँ पहिले से ही आपके बहुत साधु विहार करते थे उन्होंने सुना कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी महाराज का पधारना महाराष्ट्रीय प्रान्त में हो रहा है अतः बहुत से साधु साध्वियां सूरिजी के दर्शनार्थ आरहे थे । आचार्य श्री ने उनका धर्म प्रचार देखकर प्रसन्नता प्रगट की । तदनन्तर सुरिजी महाराज अपने शिष्य समुदाय के साथ नंदपुर, पिष्टपुर, गुडतुर, ऐलोर, नेदुतुर भाभीयपुर, कोकनाड़ा, काजलुरु, माचपुर, गुडीवडनगर, गुंतुपल्ली, जागीथा, कीही, रावलपातु, तल्लेगी, विजयनेर, कोथरू, धरणीकोट, हाडीकोट, पाडगेट, सुगलेच, माघकेट, मानखेट, मडोली, खेटपुर सपाली आदि कई ग्राम नगरों में भ्रमण करते हुये मानखेट के श्रीसंघ के आग्रह से चतुर्मास वहाँ ही कर दिया इस विहार के अन्दर कई मुमुक्षुओं को जैनदीक्षा देकर जैनधर्म की प्रभावना की दूसरे सूरीश्वरजी बड़े ही समयज्ञ थे और आप यह भी जानते थे कि जिस देश का उद्धार करना है तो Jain E६२२international For Private & Personal use Only [ मुनि रत्नभूषण को झरिषद ary.org For Private & Personal Use Only iry.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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