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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५९९-६१८ अब संयम यात्रा शेष रही है अब तू दीक्षा लेकर मेरी अन्तिम सेवा कर कि जनता का उद्धार करने में समर्थ बन जाय इत्यादि । जिस जीव के पूर्व जन्म का संस्कार और कर्मों का क्षयोपशम होता है उसको थोड़ा उपदेश भी अधिक असर कर देता है। बस राणा के दिल में यह बात जच गई कि मैं तो सूरिजी के पास दिक्षा लूंगा । राणा अपने माता पिता के पास श्राया और कहा कि मैं तो सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लूंगा । पर माता पिता कब आज्ञा देने वाले थे कि राणा तूं दीक्षा लेले । माता पिता और राणा के बहुत चर्चा हुई। माता पिता ने कहा राणा अपने घर में पारस है जिससे लोहा का सुवर्ण बन जाता है अतः घर में रह कर धर्माराधना करो ? जवाब में राणा ने संयम के सामने लक्ष्मी की असारता बतला कर माता पिता को ठीक समझा दिये। राणा तो जनता का राणा ही निकला । उसने पुनीत तीर्थराज की शीतल छाया में बड़े ही समारोह में सूरिजी के कर कमलों से भगवती जैन दीक्षा ग्रहण कर ही ली । सूरिजी ने संघपति की माला शाह जसा को पहना दी और शाह जसा संघ को लेकर वापिस लौट गया । शाह जसा बड़ा ही धर्मज्ञ एवं समझदार था । पहिले तो मोहनीय कर्म के कारण पुत्र को दीक्षा के लिये खींचातानी की थी। पर राणा की दीक्षा होने के पश्चात उसने सोचा कि राणा पहिले से ही भाग्य - शाली था और दीक्षा लेने पर तो और भी पूजनीय हो गया है । मेरा ऐसा भाग्य ही कहां कि मेरा पुत्र दीक्षा ले । मेरा कर्तव्य था कि मैं भी पुत्र के साथ दीक्षा लेता पर अभी मेरे कर्मों का जोर है। माता पातोली ने कहा पतिदेव सोच किस बात है यदि यही राणा परलोकवासी हो जाता तो आप क्या करते इससे तो दीक्षा लेना अच्छा ही है। सेठजी ने कहा सेठानी तूं बड़ी पुन्यवती है तेरी कुक्ष को धन्य है कि तेरे पुत्र ने सूरिजी के हाथों से दीक्षा ली है इससे बढ़ के पुन्य ही क्या हो सकता है इस प्रकार दम्प खुशी मनाते हुये संघ लेकर पुनः अपने नगर में आये। बाद जसा ने स्वामिवात्सल्य कर संघ को सोने की कंठियां और वस्त्र की पोशाक देकर विसर्जन किया । याचकों को इच्छित दान दिया । जसा की कीर्ति पहिले ही दूर दूर फैली हुई थी अब तो जसा का यशः भूमण्डल व्यापक बन गया । आचार्य कसूर ने बालकुमार राणा को दीक्षा देकर उसका नाम रत्नभूषण रख दिया मुनि रत्नभूषण पहले से ही विद्या का प्रेमी था पूर्व भव में ज्ञान पद एवं सरस्वती की आराधना की थी फिर भी सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा कि थोड़ा ही समय में आपने सम्पूर्ण एकादश अंगों के साथ कई पूर्वो का ज्ञान भी कण्ठस्थ कर लिया । इतना ही क्यों पर सूरिजी महाराज ने मुनि रत्नभूषण को पात्र समझ कर कई अतिशय विद्याय भी प्रदान कर दीं। अतः रत्नभूषण मुनि की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई । आचार्य श्री ने देवीसच्चायिका के कथनानुसार अपना आयुष्य नजदीक जानकर उपाध्याय विशाल मूर्ति को अपने पद पर स्थापन कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया बाद २१ दिन के अनशनपूर्वक स्वर्ग हुए। आचार्य श्रीदेवगुप्तसूरि केवल तीन वर्ष ही सूरि पद पर स्थिति रहे उनके बाद आचार्य सिद्धसूरि हुये श्राप श्री की भी रत्नभूषण पर पूर्ण कृपा थी । मुनिरत्नभूषण उम्र में तो बहुत छोटा था पर का ज्ञान बहुत विशाल था तथा आपको योग्य समझ कर आचार्य श्रीसिद्धसूरि ने वाचनाचार्य जी पद से विभूषित बना दिया था। कई मुनि आपकी सेवा में उपस्थित हो आगमों की वाचना लिया करते थे । शास्त्रार्थ में आप इतने निपुण थे कि कई राजा महाराजाओं की सभा में बौद्ध एवं दिगम्बराचार्यों को नतमस्तक कर जैनधर्म की ध्वजापताका सर्वत्र फहरा दी थी यही कारण था कि आपका नाम सुनने मात्र से वादी घबरा सिद्धगिरि पर राणा की दीक्षा ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ६२१ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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