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वि० सं० ५२ वर्ष |
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
इस प्रकार विद्याधर वंश में पादलिप्तसूरि, वृद्धवादीसूरि एवं सिद्धसेन दिवाकर सूरि प्रभाविक आचार्य हुये । प्रबन्धकार फरमाते हैं कि - विक्रम सं० १५० के बाद श्रावक मिलकर बिहार तथा गिरनार पर्वत मुकट समान श्रीनेमिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार कराते हुये बरसात के कारण नष्ट हुआ एकमठ के अंदर मिली हुई प्रशस्ति या कई प्राचीन विद्वानों के प्रन्थों से संग्रह करके इन महापुरुषों का चारित्र लिखा ।
इति श्री श्राचार्य श्री वृद्धवादी एवं सिद्धसेन दिवाकर सूरि का सम्बन्ध |
श्राचार्य श्री जीवदेवसूरि
लाटदेश के भूषण समान वायट नाम का एक प्राचीन नगर था। यों तो वह नगर ही धन धान्य से परिपूर्ण था पर उस नगर में एक धर्मदेव नामक श्रेष्ठ तो अपार सम्पत्ति का ही मालिक था तथा आपकी गृहगार स्त्री का नाम शीलवंती था और आपके महीधर एवं महीपाल नामक दो होनहार पुत्र रत्न भी थे फिर तो श्रेष्ठ की बराबरी कौन कर सकता था । महीधर पिता की सेवा में रहता था तब महीपाल बचपन से ही देशाटन किया करता था ।
वाट नगर में एक जिनदत्तसूरि नामक महाप्रभाविक आचार्य विराजते थे । श्रेष्ठिपुत्र महीधर सूरिजी के पास आया जाया करता था और कुछ ज्ञानाभ्यास भी किया करता था । जिनदत्तसूरि ने महीधर को होनहार जान कर धर्मोपदेश दिया और संसार की असारता बतला कर उनके माता पिता की आज्ञा से उसे जैन दीक्षा दे दी। शास्त्रों का अध्ययन करवा कर जब महीधर सर्वगुण सम्पन्न हुआ तो उनको आचार्यपद अर्पण कर आपका नाम रसीलसूरि रख दिया ।
महीपाल ने राजगृह नगर में श्रुतकीर्ति दिगम्बराचार्य के पास दीक्षा धारण कर ज्ञानाभ्यास किया । श्रुतकीर्ति आचार्य ने महीपाल को योग्य जानकर प्रतिचक्रा और परकायप्रवेश नाम की दो विद्यायें देकर अपने पट्ट पर आचार्य बनाकर उसका नाम सुवर्णकीर्ति रख दिया ।
सेठानी शीलवंती ने व्यापारियों द्वारा सुना कि महीपाल ने दीक्षा ले ली और राजगृह नगर की ओर विचरता है । अतः माता पुत्र के स्नेह के कारण राजगृह की ओर गई । पुत्र को दिगम्बर अवस्था में देखकर माता ने कहा मुनि श्राप दो भाई दो मत में दीक्षित हुए तो अब मुझे कौनसा धर्म पालन करना चाहिये ? अतः आप वायट की तरफ पधार कर दोनों भाई एक निर्णय कर लो कि हम लोग भी उसी धर्म का अनुसरण करें । सुवर्णकीर्ति ने माता का कहना स्वीकार कर वायट की तरफ विहार किया और क्रमशः वाटनगर पधार कर रसीलसूरि से मिले और वार्तालाप एवं ज्ञानगोष्ठी करने से श्वेताम्बर धर्म प्राचीन एवं शास्त्रविहित होने से सुवर्णकीर्ति ने दिगम्बर मत का त्याग कर श्वेताम्बर धर्म स्वीकार कर लिया । रसीलसूरि ने सुवर्णकीत को श्वेताम्बरीय दीक्षा देकर अपने पट्ट पर श्राचार्य बना कर आपका नाम जीवदेवसूरि रख दिया ।
एक समय जीवदेवसूरि का साधु व्याख्यान दे रहा था । उस सभा में एक योगी आया और आसन लगाकर व्याख्यान में बैठ गया। योगी ने अपनी विद्या से व्याख्यानदाता मुनि की जबान बन्द करदी | जब
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[ श्री वीर परम्परा
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