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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ आचार्य दिवाकरजी एक समय ॐकार नगर में पधारे वहाँ के श्री संघ ने आपका बड़ा ही समारोह के साथ स्वागत किया। एक समय वहां के श्रीसंघ ने सूरिजी से अर्ज की कि हे प्रभो! हमारी इच्छा एवं भक्ति होने पर भी मिथ्यात्वी लोग हमको जैन मंदिर नहीं बनाने देते । पूज्यवर ! आपकी मौजूदगी में हम लोगों की श्राशा सफल न हो यह एक अफसोस की बात है । सूरिजी ने कहा ठीक मैं प्रयत्न करूंगा। सूरिजी वहां से चल कर पुनः उज्जैन पधारे । राजा विक्रम को अपने ज्ञान से इतना प्रसन्न किया कि उसने कहा कि पूज्यवर ! आज्ञा फरमाओं कि मैं आपकी क्या सेवा करू ? सूरिजी ने कहा हमारी क्या सेवा करनी है यदि आपकी इच्छा हो तो ऊँकार नगर में शिवमन्दिर से उचाई में एक जैन मन्दिर बना कर पुन्योपार्जन करावें । राजा ने सूरिजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर बिना बिलम्ब तत्काल ही जैन मन्दिर बना दिया और सूरिजी के करकमलों से उस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई अतः ऊकारपुर के श्रीसंघ के मनोरथ सफल हुए। सूरिजी महाराज वहां से विहार कर भरोंच नगर की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने कई गोपालों को धर्म उपदेश दिये जैसे कि वृद्धवादी भाचार्यों ने गवालों की भाषा में उपदेश दिया था। उसकी स्मृति के लिये गोपालों ने वहां पर तालारसिक नामका ग्राम बसा दिया इस प्रकार धर्मोन्नति करते हुये सूरिजी महाराज भरोंच पधारे । उस समय भरोंच में राजा वलमित्र का पुत्र धनंजय राज करता था। सूरिजी महाराज का परम भक्त था और सूरिजी महाराज का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह से किया। ___ एक समय भरोंच पर किसी दुश्मन राजा की सेना ने आक्रमण किया दुश्मनों की सेना इतनी विशाल संख्या में थी कि धनंजय राजा घबरा गया। उस ने आकर सूरिजी से सब हाल निवेदन किया। सूरिजी थे विद्यावली उन्होंने सरसव प्रयोग से इतने सुभट बना दिये कि उन्होंने क्षण भर में ही दुश्मनों की सेना को भगा दिया तदनन्तर राजा धनंजय ने सूरिजी के पास में दीक्षा लेली । इसप्रकार शासन की प्रभा. वना करते हुये दक्षिण प्रान्त के प्रतिष्ठनपुर नगर में पधारे वहां के राजा प्रजा ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। वहां धर्मोपदेश देते हुये सूरिजी को ज्ञात हुआ कि मेरा आयुष्य अल्प है। अतः आपने अपने योग्य शिष्य को सूरिपद पर प्रतिष्ठित कर आप अनशन एवं समाधिपूर्वक स्वर्गवास किया । वहां का वैतालिक नाम का चारण फिरता हुआ उज्जन नगरी में आया वहां पर सिद्धसेनदिवाकर की बहिन सिद्ध श्री साध्वी ने उस वैतालिक चारण से अपने भाई सिद्धसेनदिवाकरजी के समाचार पूछे । इसके जवाब में निरानन्द होकर चरण ने श्लोक का पूर्वार्द्ध कहा । ___ 'स्फुरन्ति बादि खद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे' अर्थात् इस समय दक्षिण देश में वादीरूपी खद्योत स्फुरायमान हो रहे हैं। इस पर साध्वी सिद्धी श्री ने अपने अनुमान से श्लोक का उत्तरार्द्ध कहा कि । "नूनमस्तंगतो वादी, सिद्धसेनो दिवाकरः" अर्थात् सिद्धसेन दिवाकर सूरि का स्वर्गवास हो गया होगा तभी तो वादी स्फुरायमान हो रहे हैं। वैतालिक को पूछने से साध्वी का अनुमान ठीक निकला । साध्वी ने उसी दिन से अनशन कर दिया और रतनत्रिय की आराधना करती हुई स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ] ४४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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