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वि० सं० ५२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
एक समय राजा विक्रमादित्य कुंडगेश्वर महादेव के दर्शनार्थ जा रहा था । दिवाकरजी को भी साथ चलने को कहा, इसपर दिवाकरजी भी साथ हो गये । राजा ने महादेव को नमस्कार किया पर दिवाकरजी बिना नमस्कार किये ही खड़े रहे । राजा ने कहा कि आप जाति के ब्राह्मण और इतने विद्वान होते ये भी देव को नमस्कार नहीं करते हो इसका क्या कारण है ?
दिवाकरजी- मेरे नमस्कार को सहन करने वाला देव दूसरा ही है । यह देव मेरे नमस्कार को सहन नहीं कर सकेगा ।
राजा ने इसका कारण धर्म भेद समझ कर पुनः कहा कि हम देखते हैं श्राप नमस्कार करें फिर यह देव कैसे सहन नहीं करेगा ?
दिवाकरजी - राजन् ! आप हठ न करें मैं ठीक कहता हूँ । यदि मैं नमस्कार करूंगा तो आपके दिल को भी आघात पहुँचेगा ?
राजा - खैर | कुछ भी हो आपतो महादेव को नमस्कार कीजिये ?
दिवाकरजी राजा के आग्रह से न्यायावतार सूत्र की स्तुति और कल्याण मन्दिर स्तोत्र बनाकर देव की स्तुति करने लगे तो महादेव के लिंग के अन्दर से धुंआ निकलना शुरु हुआ जिसको देख लोग कहने लगे कि शिवजी का तीसरा नेत्र प्रगट हुआ है । शायद् शिवजी का अपमान करनेवाले को जलाकर भस्म कर डालेगा । जब कल्याण मन्दिर का तेरहवां श्लोक उच्चारण किया कि धरणेन्द्र साक्षात् श्राया और महादेव के लिंग की नींबू की भांति चार फांके होकर अन्दर से आवन्ति पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट होगई जिसको देख राजा प्रजा उपस्थित लोगों को बड़ा ही आचार्य हुआ। राजा ने इसका कारण पूछा तो दिवाकरजी ने कहा कि भद्रासेठानी के पुत्र श्रावन्ति कुमार ने बत्तीस रमणिये और करोंड़ों द्रव्य त्याग कर जैन दीक्षा और उसके पुत्र ने इस स्थान पर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की जिसको आवन्तिपार्श्वनाथ कहते थे पर ब्राह्मणों की प्रबलता में पर्श्वनाथ की मूर्ति दवा कर ऊपर लिंग स्थापित कर दिया वही आज
पके आग्रह से प्रगट हुआ है इस चमत्कारी घटना को देख कर राजा ने जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और कट्टर जैन बन गया । 'यथा राजास्तथा प्रजा' और भी बहुत से लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार किया जिससे जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई । इस प्रभाव के कारण श्रीसंघ ने शेष ५ वर्ष माफकर दिवाकर जी को श्रीसंघ में लेकर पुनः गच्छ का भार उनके सुपुर्द कर दिया ।
राजा विक्रम ने सूरिजी के उपदेश से श्री शत्रु जय तीर्थ का एक विराट् संघ निकाला जिसमें हजारों साधु साध्वियाँ और लाखों गृहस्थ संघ में साथ थे। इस संघ का जैनप्रन्थो में बड़े विस्तार से वर्णन किया है ।
न्यायावतार सूत्रच श्रीं वीरस्तुति मध्यथ । द्वात्रिंशच्छूलोकमानाश्च त्रिंशदन्याः स्तुतीरपि ॥ १४३ ॥ ततश्चतुश्चत्वारिंशद्धद्दतां स्तुतिमसौ जगौ । कल्याणमन्दिरेत्यादि विख्यातां जिनशासने ॥ १४४॥ अस्य चैकादशं वृत्तं पठतोऽस्य समाययौ । धरणेंद्रो दृढा भक्तिर्न साध्यं तादृशां किमु ॥ १४५ ॥ शिवलिंगात्ततो धूमस्तत्प्रभावेण निर्ययौ । यथांधतमसस्तोमैर्मध्याह्नपि निशाभवत् ॥ १४६ ॥ यथाविह्वलितो लोको नंष्टुमिच्छन् दिशो नहि । अज्ञासीदाश्मनस्तंभभितिवास्फालितो भृशम् ॥ १४७ ॥ ततस्तस्कृपयेवास्माद् ज्वालामाला विनिर्ययौ ! मध्येसमुद्रमावर्त्तवृत्ति संवत कोपमा ॥ १४८ ॥ ततश्च कौस्तुभस्येव पुरुषोत्तम हृस्थिते । प्रभोः श्रीपार्श्वनाथस्य प्रतिमा
प्रकटाभवत् ॥ १४९ ॥ प्र० ॥
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