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नाचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ४५२
ना । सूरिजी के वचन सुनकर श्री संघ सख्त नाराज हुआ और कहा कि तीर्थकर सर्वज्ञ थे और गणधर नी जिनतुल्प ही थे उन्होंने चौदह पूर्व का ज्ञान संस्कृत में और एकादशांग का ज्ञान प्राकृत भाषा में बनाया है इसमें उन्हों की जन कल्याण की भावना ही मुख्य थी जैसे कहा है किः
बालस्त्रीमृढमूर्खादि जनानुगहणाय सः । प्राकृतां तामिहाकादिनास्थात्र कथंहिवः ॥ ___ अतः तीर्थकर गणधरों के रचे हुए भागमों का अनादर रूप महान् आशातना का प्रायश्चित लेना चाहिये । कारण इस प्रकार मूलअंग सूत्रों को बदल दिए जाय तो फिर जिन वचनों पर विश्वास ही क्या रहेगा इत्यादि।
सत्पक्षी सिद्धसेन दिवाकर जी की समझ में आ गया कि मेरी ओर से आशातता अवश्य हुई है। श्रीसंघ से कहा कि जो दंड संघ दे वह मुझे मंजूर है । श्रीसंघ ने विनय के साथ कहा कि दंड देने का हमें क्या अधिकार है। हम तो आपकी आज्ञा के पालन करने वाले हैं । हाँ, दंड स्थविर भगवान दे सकते हैं । स्थविरों से याचना करने पर उन्होंने विचारणापूर्वक दशवा पारंचिक प्रायश्चित दिया कि इस प्रायश्चित की अवधि बारह वर्ष तक है परन्तु आप किसी बड़े राजादि को प्रतिबोध कर जैन धर्म की प्रभावना करें सो श्रीसंघ को अधिकार है कि इसमें रियायत भी कर सके । आत्मकल्याण की भावना वाले सूरिजी ने उस प्रायश्चित को स्वीकार कर लिया और गच्छ का भार अन्य योग्य स्थविर को सौंप कर आप गच्छ से अलग हो गये और ओषा मुँहपति गुप्त रख अवधूत के वेष में संयम की रक्षा करते हुये भ्रमण करने लग गये ।
___ इस भ्रमण में दिवाकरजी ने ७ वर्ष व्यतीत कर दिये बाद एक समय उज्जैनी नगर में गये । राजा के द्वारपाल को कहा कि तू राजा के पास जाकर निवेदन कर कि एक अवधूत हाथ में चार श्लोक लेकर आया है और वह आपसे मिलना चाहता है अतः श्रापकी आज्ञा हो तो अन्दर आने दिया जाय । राजा ने आज्ञा देदी। दिवाकर जी राजा के पास आये और निम्न लिखित श्लोकों द्वारा राजा की स्तुति की। अपूर्वेय धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौधः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥१॥ सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरं गता ॥२॥ कीर्तिस्ते जात जाड्य व चतुरम्भोधि मज्जनात। आतपाय धरानाथ ! गता मार्तण्डमण्डलम् ॥३॥ सर्वदा सवेदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥४॥
इन श्लोकों को सुनकर राजा मंत्रमुग्ध बन गया और बड़े ही सम्मान के साथ अपनी सभा में रक्षा और हमेशा ज्ञानगोष्टि करता रहा । सब पण्डितों में सिद्धसेन का आसन ऊंचा समझा जाता था।
अभी पानकुरंकामाः सप्तापि जलराशयः । यद्यशो राजहंसस्य पंजरं भुवनत्रयम् ॥१॥ भयमेकमनेकेभ्यः शत्रुभ्यो विधिवरसदा । ददासि तच्चते नास्ति राजश्चित्रमिदमहत् ॥२॥ & अन्यदा लोकवाक्येन जातिप्रत्ययतस्तथा । आबाल्यात्संस्कृताभ्यासी कर्मदोषात्प्रबोधितः ॥१०९॥
सिद्धान्तं संस्कृतं कर्तुमिच्छरसंघ व्यजिज्ञपत् । प्राकृते केवलज्ञानिभाषितेऽपि निरादरः ॥११०॥ बालस्त्रीमूढमूर्खादिजनानुग्रहणाय सः । प्राकृतां तामिहाकार्षीदनास्थात्र कथं हि वः ॥ १६॥ इति राज्ञा स सन्मानमुक्तोऽभ्यणे स्थितो यदा । तेन साकं ययौ दक्षः स कुडंगेश्वरे कृती ॥१३॥
अरवेति पुनरासीनः शिव लिङ्गस्य स प्रभुः । उदाजद्वे स्तुतिश्लोकान् तार स्वर करस्तदा ॥ ३॥ प्र० च० आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ]
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