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________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५५७-५७४ nama कल ही रवाना करदे - बस सोमा ने अपना पुत्र धवल और पाठ आदमियों को देकर माता को रवाना करदी। माता रथ पर बैठ गई और चलती चलती परमा ग्राम में पहुँची वहां एक मन्दिर था पर समय बहुत हो जाने से पट्ट मंगल हो गया था माता के दर्शन का नियम था पुजारी के पास गई तो उसने कहा के मैं अभी आ नहीं सकता हूँ आपके ऐसे ही दर्शन करना हो तो अपना नया मंदिर बनाले इस ताना के मारी माता ने उस दिन उपवास कर लिया और चतुर कारीगरों को बुलवा कर नया मंदिर की नींव डलवा ही माता ने कुछ रकम तो वहां के संघ अग्रेश्वरों को दे दी और कह दिया कि शेष रकम हमारे पुत्र सोमा से मंगवा लेना सोमा बड़ा व्यापारी था जिसको सब लोग जानते थे माता वहां से २९ वें दिन सिद्धगिरी पर पहुंची और भगवान आदीश्वर की यात्रा कर अनशन कर दिया दूसरे दिन माता का स्वर्गवास हो गया उसी दिन सोमाशाह वगैरह कई लोग शत्रुजय आ गये पर सोमा के माता का मिलाप नहीं हुआ सोमा ने विचार किया कि यदि मैं माता को नहीं भेजता तो बड़ा भारी पश्चाताप करना पड़ता मैं हतभाग्य है कि माता की अन्तिम सेवा नहीं कर सका फिर भी माता के मनोरथ सफल हो गया-सोमा ने अपनी माता की मृत्यु क्रिया करके वापस लौटता हुआ परमा ग्राम में आया और माता के प्रारम्भ किया मंदिर को सम्पूर्ण करवा कर उसकी प्रतिष्ठा आचार्य ककसूरि के हाथों से करवाई । इस प्रकार सूरिजी ने अपने हाथों से अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बना दिया था। ____ आचार्य श्री के समय केवल धर्म प्रचार की ही आवश्यकता नहीं थी परन्तु उस समय कई वादियों का भी जैन धर्म पर आक्रमण हुआ करते थे अतः उन्हों के सामने भी हर समय कटिबद रहना पड़ता था कई राजा महाराजाओं की सभाओं में जाकर शास्त्रार्थ द्वारावादियों को पराजय कर जैन धर्म की विजयपताका फहराया करते थे। सूरिजी के आज्ञावृति बहुत से साधु ऐसे थे कि उन्हों का तो यह एक कार्य ही बन चुका था कि वे बादियों के साथ शास्त्रार्थ कर स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रचार किया करें। आचार्य कक्कसूरिजी ने पुनीत तीर्थ श्रीशत्रुजय गिरनार एवं सम्मेत शिखरादि तीर्थों की यात्रा निमित्त बड़े-बड़े संघ निकला कर हजारों लाखों भावुकों को तीर्थ यात्रा का लाभ पहुँचाया पट्टावलीकारों आपश्री के जीवन में संघों का भी विस्तार से वर्णन किया है परन्तु ग्रंथ बढ़ जाने के भय से यहां पर इतना ही कहदेना पर्याप्त होगा कि श्रद्धा सम्पन्न भावुकों ने तीर्थयात्रार्थ लाखों करोड़ों द्रव्य ध्यय कर कल्या. णकारी शुभ कर्मोपार्जन किया। आचार्य कक्कसूरि ने अपने जीवन में जैन शासन की महान् सेवा की है। जिसको न तो जबान द्वारा वर्णन किया जा सकता है और न लोहा की तुच्छ लेखनी द्वारा लिखा ही जा सकता है ऐसे जैनधर्म के प्रभाविक पुरुषों के चरण कमलों में कोटि कोटि वन्दन हो। पट्ट अठारहवे ककसूरीश्वर अदित्य नाग उज्जारे थे । सहस्रों साधु रू साध्वियों जैसे चन्द्र विच तारे थे। बादी मानी और पाखंडी देख दूर भग जाते थे । सुरनर पति जिनके चरणों में झुकझुक शीश नमाते थे। इति भगवान् पार्श्वनाथ के अठारहवे पट्टधर ककसूरि महान प्रभाविक प्राचार्य हुए वादियों को आक्रमण के सामने ] For Private & Personal use Only ५७३ www.jainal was org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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