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सब जीव कर्माधीन हैं । यदि मैं मर जाऊँ तो फिर क्या होगा पीछे काम तो सब चलेगा ही अतः आपने अपना निश्चय नहीं बदला।
९-दीक्षा की भावना की विदागीरी' चैत बद ७ की बात है कि स्था० पूज्य रुघनाथजी की समुदाय के साधु रतनचन्दजी सुबह ९ बजे वीसलपुर में आये उनको यह मालूम नहीं था कि चैत बद ८ को गयवरचन्द दीक्षा लेने का निश्चय कर चुका है इधर उसी दिन सुबह ७ बजे राजकुवारी के गर्भ का पतन हो गया जिसकी करीब १० बजे प्राम में सर्वत्र बात फल गई कि ढूंढिया साधु गयवरचंद को दीक्षा देने को आये हैं इसके दुःख से राजकुवारी के गर्भ का पतन हो गया है कई जनेतर औरतों ने तो स्था, साधुजी के पास जाकर भले बुरे ऐसे शब्द कहे कि साधुजी ने वहां पर भिक्षा भी नहीं की और बिहार कर दिया। बस प्राम में हाहाकार मच गया और दीक्षा तथा साधुओं की सर्वत्र निन्दा होने लगी। इस प्रकार अपवाद को देख कर गयवरचंद का दिल बदल गया और यह निश्चय कर लिया कि इस समय दीक्षा लेना अच्छा नहीं है। उसी दिन रात्रि में अपने पिताजी के पास जाकर कह दिया कि अब मेरा विचार दीक्षा लेने का नहीं है पर मैं कल दिशावर चला जाऊंगा। मेरे व्यापार सम्बन्धी लेन देन या माल वगैरह है इसकी व्यवस्था श्राप ही करावे यदि मैं दीक्षा लेता तो भी श्राप ही को करनी पड़ती मुताजी ने स्वीकार कर लिया। तथा राजकुवारी को भी मुताजी ने अपने घर पर बुलवाली और गयवरचन्दजी चैतबद ८ सुबह तड़के ही दिशावर के लिये रवाने हो गये जो आपको चैत बद ८ को घर छोड़ना ही था। .
गयवरचन्दजी छ मास विशावर में रहे बाद व्यापार सम्बन्धी कहीं जाना था आप पांच साव दिनों के लिये वीसलपुर आये पर उस समय मुताजी बीमार हो गये थे अतः पन्द्रह दिन बीमार रह कर मुताजी का स्वर्गवास हो गया गयवरचन्द इतने भाग्यशाली थे कि पिताजी की अन्तिम सेवा कर धर्म का अच्छा सहाज दिया।
माताजी एवं अन्य सम्बन्धी लोगों ने गयबरचन्द को कहा कि अब दिशावर जाना बन्द रखो और आपके पिताजी का लेन देन एवं दूकान का काम संभालो गणेशमल दिशावर में है हस्तीमलादि सब छोटे बच्चे हैं इत्यादि सब के कहने पर आपको स्वीकार करना पड़ा अब तो श्राप पर सब घर का काम प्रा पड़ा जो दीक्षा की भावना थी वह कुटम्ब भावना में परिवर्तित हो गई इतना ही क्यों पर वैराग्य की धुन में आपने चार खन्ध अर्थात् १ रात्रि भोजन, २ कच्चा पानी आदि सचित ३ वनस्पति और ४ मैथुन के त्याग यावत् जीवन के लिये किये थे वह भी पालन नहीं हो सके किन्तु सब के सब खण्डित हो गये । इस दशा में पांच वर्ष व्यतीत हो गये और आपके दो सन्तान हुई पर अल्पायु में ही शान्त हो गई तथापि आप गृहस्थावास में ऐसे फंस गये कि दीक्षा का नाम भी भूल गये । हां कभी याद भी प्राति पर यह हम्मेद नहीं रही कि मैं कभी दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करूंगा।
१०-'दीक्षा की पुनर्भावना'-आप दम्पति दिशावर जा रहे थे रास्ता में रतलाम शहर में पूज्य श्री लालजी महाराज का चातुर्मास था अन्य लोगों के साथ आप भी दर्शनार्थ रतलाम उतर गये। पूज्य श्री के दर्शन कर व्याख्यान सुना तो पूज्य जी के व्याख्यान का विषय था कि व्रत कर के भंग करने से अनंतकाल संसार में भ्रमण करना पड़ता है। बस इसको सुन कर पुनः दीक्षा की भावना हो गई । कारण आपने ४ बड़े व्रत लेकर खंडित कर दिये थे अब गृहस्थावास में रह कर वे व्रत पालन कर नहीं सके जिससे अनंत
संसारी होना पड़े। इत्यादि आप अपनी पत्नी के साथ दो मास रतलाम में ठहर कर ज्ञान ध्यान करने लग Jain गये । वहां आपके छोटे भाई गणेशमलजी आए और आपको बहुत प्रार्थना की कि कम से कम मेरा विवाह
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