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[ ७] आपके हाथों से होना चाहिये । सं० १९६३ के माघ मास में गणेशमलजी का विवाह करने का निश्चय आप ही ने किया था। आप श्री ने स्वीकार कर लिया। इस पर गणेशमलजी अपनी भौजाई को लेकर बीसलपुर चले आये और गयवरचन्दजी पूज्यश्री के पास रहे।
११-"वतमान काल के साधुओं की मनोवृत्ति" जैनसाधु "तीनाणंतारियाण" कहलाते हैं पर शिज्यपिपासु लोग इस सूत्र को भूल जाते है । साधुओं ने सोचा कि यदि गयवरचन्दजी अपने भाई के विवाह करने के लिये चले जायेंगे तो उस राग रंग में यह वैराग्य रहेगा या नहीं अतः एक सुयोग्य आया
ना शिष्य हाथ से चला जायगा अतः उन्होंने ऐसा जाल रचा कि मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी के दिन मेवाड़ प्रान्त के निंबहेड़ा ग्राम में लेजा कर गयवरचन्दजी के गृहस्य कपड़े उतार कर श्रोषा मुहपती पात्रा मोली वगैरह देकर नकली साधु बना कर मिक्षाचारी करवानी शुरू करदी। जब इस बात का पता गणेशमलजी
आदि आपके कुटुम्ब वालों को मिला तो उन्होंने सोचा कि जब आपने अपनी जवान का भी खयाल नहीं किया तो भविष्य में आप क्या करेंगे उन्होंने गुस्सा में आकर श्राज्ञा देने का साफ इन्कार कर दिया।
१२-'स्वयमेव दीक्षा' साधुत्रों के पास मायावी उपाय एक ही नहीं पर अनेक हुआ करते हैं साधुओं में कहा कि गयबरचन्दजी अब आपकी सहज ही में आज्ञा होना तो मुश्किल है तुम स्वयं दीक्षा लेलो बस नीमच के पास एक जामुणिया नाम का छोटासा प्राम है वहां मोतीलालजी महाराज चारठाणे से विराजते
वहां भेज कर गयवरचन्दजी को स्वयं दीक्षा लेने का आग्रह किया आप भी ने स्वयं दीक्षा लेली कारण पशवकालिक उत्तराध्ययनादि कई सूत्र तो आपने पहिले से ही कण्ठस्थ कर लिये थे बस सं० १९६३ चैत्र वद
को गयबरचन्दजी स्वयं दीक्षा लेकर वहां से बिहार कर आप कोटा पूज्य श्री लालजी म. के पास पहुँच गये और चैत्र वद १३ को बड़ी दीक्षा भी स्वयं ही लेली । यहाँ तक तो सब राजी खुशी थे स्वयं दीक्षा तीर्थकर
प्रतिबुद्ध ही ले सकते हैं पर अवोधात्मा क्या नहीं कर सकते हैं खैर पश्चात् कई एक दिनों में ही रंग बदल गया जिसके लिये आपको करीब १४ मास तक जो कष्ट और दुःख का अनुभव करना पड़ा है वह आपकी पारमा या परमात्मा ही जानते हैं । यदि कोई कच्चा वैराग्य वाला होता तो वस्त्र फेंक कर भाग ही जाता पर आप तो व्यों ज्यों सुवर्ण को ताप देने से उसका मूल्य बढ़ता है इस प्रकार परीक्षा की कसौटी पर पास ही करते गये पर आपको साधुओं की मायावृत्ति और प्रपंच का ठोक अनुभव हो गया। फिर भी आपने तो उन मुनियों एवं पूज्य श्री का उपकार ही माना कि कितना ही कष्ट सहन करना पड़ा हो पर दीक्षा मिल गई इस बात का उपकार ही समझा अस्तु आपके भ्रमण का संक्षिप्त से हाल लिख दिया जाता है।
1-सं० १९६४ का चातुर्मास आपने सोजत में मुनिश्रीफूलचन्द महाराज के साथ किया वहां पर बखतावरमलजी सीयाटिया के कारण ज्ञान भ्यान योकड़ा कण्ठस्थ करने का बड़ा भारी लाभ मिला तथा रिषभदामजी रातडिया और वखतावरमलजी सुराणा ने आज्ञा की कोशिश की जब राजकुंवरबाई सोजत रोनार्थ आई वो उक्त दोनों सरदारों ने अपने हाथों से एक आज्ञा पत्र लिख कर उस पर अपठित राजकु रवाई का अंगुष्टा चेपा दिया पर पूज्यजी ने उसको स्वीकार नहीं किया अतः पुनः माता की आज्ञा के जाये कोशिश करनी पड़ी जब वह काम हुआ तो गुरु करने के लिये साधुओं ने आपको बहुत कष्ट पहुँचाया उसका मैं यहां पर लिखना उचित नहीं समझता हूँ कारण ऐसा लिखने से लोगों की साधुत्रों से श्रद्धा ही जाती है। फिर भी यह प्रथा इतनी कलेश करने वाली है कि साधु पदकों शोभा नहीं दे ।
2-सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में पूज्य महाराज श्री की सेवा में हुआ । पूज्य महाराज EFITर में बीमारी होने पर चिरकाल के दीक्षित ज्यादा साधुओं के होने पर भी कोई ब्याख्यान बापने ary.org