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________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को शाही यानि शाह की उपाधि थी अतः जैन ग्रन्थकारों ने उनको शाही राजा के नाम से लिखा है पर मैं तो यहाँ उनको शक नाम से ही लिलूँगा, कारण वे भारत में आने पर शक ही कहलाते थे और आगे चल. कर उन्होंने शक संवत् चलाया वह आज भी चलता है। उस समय उस शक प्रदेश में ९६ मण्डलीक राजा और उन पर एक सत्ताधीश राजा राज करता था उनके पास सात लक्ष घोड़ों की सैना थी । कालकाचार्य किसी एक मण्डलीक राजा के पास गये और कई दिन वहाँ ठहर कर आपने अात्मिक ज्ञान एवं निमित्तादि अनेक विद्याओं से शक राजा को वश में कर उसका चित्त अपनी ओर आकर्षित कर लिया। शक राजा को भी विश्वास हो गया कि यह कोई निस्पृही महात्मा हैं अतः वह सूरिजी का पक्का भक्त बन गया । हमेशा दोनों की ज्ञानगोष्टी हुआ करती थी। एक समय ९६ मण्डलिकों के मालिक राजा ने एक कटोरा एक छुरा और एक पत्र उस मण्डलीक शक राजा के पास भेजा जहाँ कालकाचार्य रहता था। उस पत्र को पढ़ कर शक शोकातुर हो गया। कालकाचार्य ने कहा कि आपको भेंट आई है, यह हर्ष का विषय है आप उदास क्यों हैं ? उसने कहा कि यह इनाम नहीं पर काल की निशानी है । पत्र में लिखा है कि इस छुरे से तुम अपना शिर काट कर इस कटोरे में रख कर भेज दो बरना तुम्हारे बाल बच्चादि सब कुटुम्ब का नाश कर डालूंगा और यह हुकुम केवल एक मेरे पर ही नहीं पर इस छुरे पर ९६ का नम्बर है अतः ९६ मण्डलिकों पर भेजा होगा। कालकाचार्य ने अपने कार्य की सिद्धि का सुअवसर समझ कर कहा कि आप घबराते क्यों हो ? ९५ मण्डलिकों को यहाँ बुला लीजिये अतः आप ९६ मण्डलीक मिल कर मेरे साथ चलें मैं आपका बचाव ही नहीं पर आपको भारत की मुख्य राजधानी उज्जैन का राज दिलवा दूंगा । मृत्यु के सामने इन्सान क्या नहीं करता है । शक राजा ने ९५ मण्डलिकों को गुप्तरीति से बुला लिया और ९६ मण्डलीक वहाँ से चल कर भारत में आ गये पर सौराष्ट्र प्रदेश में आये कि चतुर्मास के कारण बरसात शुरू हो गई अतः उन ९६ मण्डलिकों ने अपना पड़ाव सौराष्ट्र में ही डाल दिया इतना ही क्यों पर कुछ सौराष्ट्र का प्रदेश भी अपने अधिकार में कर लिया बाद जब चतुर्मास व्यतीत हो गया तो कालकाचार्य ने चलने की प्रेरणा की पर शकों ने कहा कि हम खर्चा से तंग हो गये हैं और द्रव्य बिना काम चल नहीं सकता है इस पर कालकाचार्य ने कुम्हार के कजावे पर एक ऐसी रसायन डाली कि वह सब सोने का हो गया। तब आकर शकों को कहा लो तुमको कितना द्रव्य चाहिये जरूरत हो उतना ही सुवर्ण ले लीजिये । इस चमत्कार को देख शक तो आश्चर्य में डूब गये और उनका उत्साह खूब ही बढ़ गया। फिर तो था ही क्या ? उन्होंने इच्छित द्रव्य ग्रहण कर वहाँ से प्रस्थान कर दिया और रास्ता में भरोंच के बलमित्र भानुमित्र वगैरह राजाओं को +: पृष्टश्चित्रान्मुनीन्द्रेण प्रसादे स्वामिनः स्फुट । आयाते प्रामृते हर्षस्थाने किं विपरीतता ॥ ५२ ॥ तेनीचे मित्र कोपोऽयं न प्रसादःप्रभोनन । प्रेष्यं मया शिरश्ठित्वा स्वीयं शस्त्रिकयानया ॥ ५३ ॥ 8 सर्वेपि गुप्तमाह्वाय्य सूरिभिस्तत्र मेलिताः । तरीभिः सिन्धुमुत्तीर्य सुराष्ट्रान्ते समाययुः ॥ ५६ ॥ + सूरिणाथ सुहृद्रजा प्रयाणेऽजलप्यत स्फुटम् । स प्राह शंबलं नास्ति येन नो भावि शंबलम् ॥ ६२ ॥ श्रुत्वेतिं कुम्भकारस्य गृह ऐकत्र जग्मिवान् । वह्निना पच्यमानं चेष्टकापाकं ददर्श च ॥ ६३ ॥ कनिष्ठिकानखं पूर्ण चूर्णयोगस्य कस्यचित् । आक्षेपात्तन्त्र चिक्षेपाक्षेप्य शक्तिस्तदा गुरुः ॥ ६४ ॥ विध्यातेऽत्र ययावने राज्ञः प्रोवाच पत्सखे। विभज्य हेम गृहीत यात्रा संवाह हेतवे ॥ ६५ ॥ श्री वीर परम्परा Jain Educa r national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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