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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शोध खोज करने पर भी दशवीं शताब्दी से प्राचीन प्रमाण नहीं मिलता है । यह स्वाभाविक ही है। जिस शब्द का प्राचीनता की दृष्टि से अभाव है, उसका अस्तित्व ढढूंना मानो "पानी को मथ कर धृत निकालना है"। अतएव यह निर्विवाद स्वीकार करना चाहिये कि "महाजन-वंश" के रूप में "ओसवाल" जाति की उत्पत्ति उपकेशपुर में आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई । इस घटना के समय के सम्बन्ध में मतभेद अवश्य है। इस सम्बन्ध में नवीन विचार वाले निश्चयात्मक सिद्धान्त पर तो नहीं आये हैं, किन्तु कई प्रकार की दलीले अवश्य किया करते हैं किसी पदार्थ के निर्णय करने में तर्क और शंकाए उत्पन्न होना लाभप्रद ही है किंतु इसके पूर्व सत्य को स्वीकार करने की योग्यता प्राप्त करना कुछ विशेष लाभप्रद है। पदार्थ विशेष की पूर्णतया जांच और निर्णय करने में सर्व प्रथम समय, शक्ति, अभ्यास एवं साधन जुटाना आवश्यक होता है; किन्तु दुःख है कि प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध में शायद ही किसी संशोधक ने आज तक यथा-साध्य परिश्रम किया हो । इस महत्वपूर्ण विषय के सम्पादन के लिए सर्व प्रथम कर्तव्य तो ओसवालों का ही है । उन्हें चाहिये कि वे अपनी जाति की उत्पत्ति के विषय में शोध खोज कार्य के लिए सतर्क हों । यह लिखते हुए भी हमें दुःख होता है कि अखिल भारतीय ओसवाल महासम्मेलन ने अपने ४-५ अधिवेशनों में इस विषय के इतिहास के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। यह उचित नहीं कि जिस समाज के उद्धार के लिए तो हम हजारों रुपयों के साथ अपनी शक्ति और समय का व्यय कर दें किन्तु उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में बिल्कुल मौन रहें । कहा है कि-"मूलं नास्ति कुतःशाखा" अर्थात् जिस वृत के मूल का पता नहीं; उसके अन्यान्य अङ्गों का उद्धार कैसे संभव हो सकता है ? जब सम्मेलन के विद्वानों की भी यही दशा है तो अन्य साधारण व्यक्तियों के सम्बन्ध में तो कहा ही क्या जाय ? प्रायः ओसवालवंशीय श्राज केवल धनोपार्जन करने में ही अपना गौरव समझते हैं; किन्तु इसकी उन्हें चिन्ता नहीं है कि सभ्य समाज उन्हें प्राचीन समझता है या अर्वाचीन ! अाधुनिक समय की इस विषम परिस्थिति को देखते हुये यह आवश्यक हो गया है कि हम सर्व प्रथम अपने इतिहास को उपलब्ध करें। __उपकेश-वंश ( ओसवालों ) की उत्पत्ति के समय के सम्बन्ध में हमारे सम्मुख जो शंकाएँ उपस्थित होती हैं, उनका समाधान करने के पूर्व हम दो बातों का उल्लेख करना परमावश्यक समझते हैं १-कुछ लोगों नेहमारे पूर्वज सूर्यवंशी महाराजा उत्पलदेव को भ्रम से परमार जाती का उत्पलदेव समझते हुये ओसवाल जाति को दशवीं शताब्दी का निकटवर्ती समाज समझ लिया २-दूसरी बात महाजनसंघ या उपकेशवंश की उत्पत्ति के वास्तविक समय पर बिल्कुल लक्ष्य न देते हुये "ओसवाल" शब्द की उत्पत्ति के समय को ही महाजन संघ का मूल उत्पत्ति-समय समझ लिया । ये दोनों भ्रमात्मक बातें ओसवंश उत्पत्ति-समय के समय निर्णय में बाधक हैं । अतएव प्रथम इनका समाधान करना अधिक आवश्यक है। उपकेशपुर नामक नगर बसाने वाले उत्पलदेव को कई इतिहास से अनभिज्ञ व्यक्ति परमार कहते हैं । वस्तुतः वे परमार नहीं थे। भाट भोजकों की दंतकथाओं के अतिरिक्त किन्हीं प्राचीन ग्रन्थों और पट्टावलियों में उत्पलदेव गजा को परमार लिखा नहीं मिलता है। हमारे उत्पलदेव का समय तो विक्रम से ४०० वर्ष पूर्वका है; उस समय परमारों का अस्तित्व ही नहीं था। परमारों के आदि पुरुष धूम्रराज थे। उनके बाद उत्पलदेव नाम के एक राजा अवश्य हुये हैं जिनका कि समय वि. की दशवीं शताब्दीका है। Jain Education national For Private & Personal Use Only १७७ainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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