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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-कनौज से आने वाले समूह का गौत्र कनौजिया हो गया। ७-बलहा नगर से आने वाले लोग बलहा गौत्र से प्रसिद्ध हुये तथा इनके अन्दर रांका और बांका नाम के दो वीर पुरुष हुये जिनकी सन्मान रांका बांका कहलाई। ८-श्रेष्टिगोत्र-राजा उत्पलदेव की सन्तान ने अनेक ऐसे श्रेष्ठ कार्य कर बतलाये कि उनकी परम्परा में वे श्रेष्ठ कहलाये तथा इनकी सन्तान में एक लालसिंह नाम के प्रसिद्ध पुरुष हुये कि उन्हों को वैद्य की पदवी मिली तब से वे.श्रोष्टि गौत्री वैद्य एवं वैद्य मेहता कहलाये । ९- करणाट देश से आये हुये समूह के लोग कर्णाट कहलाने लगे। १०- कुमटादि का व्यापार करने वालों का कुमट गौत्र बन गया। इत्यादि कारणों से गौत्र एवं जातियें बन गई थीं जिनकी संख्या के लिये निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि उनकी संख्या कितनी थी। और इनकी संख्या हो भी तो नहीं सकती है क्योंकि जब कभी कारण बन गया तब ही जाति बन जाती है । हाँ, जिस दिन महाजन संघ की स्थापना हुई थी उस दिन से ३०३ वर्षों के बाद उपकेशपुर में प्रन्थि-छेदन का उपद्रव हुआ और उसकी शान्ति के लिये वृहद् शान्ति स्नात्र पूजा भणाई गई। उस पूजा में १८ गौत्र वाले स्नात्रिये थे। उनका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में किया है। उसके आधार पर अठारह गौत्रों के नाम बतलाये जाते हैं, पर यह केवल उपकेशपुर और उसमेंभी पूजा स्नात्रिये बने उनके गौत्र हैं, पर इनके अलावा उपके शपुर में तथा उपके शपुर के अलावा अन्य स्थानों में इन महाजनसंघ रूपी समुद्र में गौत्र रूप कितने रत्न होंगे उनका पता कौन लगा सकता है ? हाँ, आचार्य रत्नप्रभसूरि के स्थापित किये महाजन संघ के १८ गौत्र होने के कारण यह कह दिया जाय कि रत्नप्रभसूरि ने १८ गौत्र स्थापित किये तो इस उपेक्षा से अनुचित भी नहीं है, क्योंकि वे गौत्र उसी महाजनसंघ के थे कि जिसको रत्नप्रभसूरि ने स्थापित किया था। । दूसरे यह १८ गौत्र और इनसे भी अधिक गौत्र एवं जातियाँ बन जाना उन महाजनसंघ की उन्नति एवं वृद्धि का ही द्योतक है। कारण जैसे जैसे महाजनसंघ की वृद्धि होती गई और उसमें जैसे जैसे नामाँकित पुरुष पैदा हो हो कर देश समाज एवं धर्म की सेवा करते गये वैसे वैसे उनकी सन्तानों के साथ उन पुरुषों के नाम चिरस्थायी बनते गये । बस वे ही नाम जातियों एवं गौत्रों के नाम धारण करते गये, जिनकी सँख्या यहां तक बढ़ गई थी कि उनको मनुष्य गिन भी नहीं पाये थे। जब उल्टा चक्र चला और महाजनसंघ की अवनति होने लगी तो उन गौत्र और जातियों की संख्या घटने लगी कि वह अंगुलियों पर गिनने जितनी रह गई, अर्थात् गौत्र एवं जातियों का घटना बढ़ना महाजन संघ की उन्नति अवनति पर ही था। सारांश यह है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अलग २ गौत्र स्थापन नहीं किये थे। वे एक एक कारण पाकर गौत्र एवं जातिय बन गई थीं। अगर रत्नप्रभसूरि के स्थापित किये महाजन 'घ के गौत्र होने से यदि इनको रत्नप्रभसूरि के स्थापित किये कह दिया जाय तो पूर्वोक्त अपेक्षा से यह अनुचित भी नहीं है । Jain En international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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