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________________ वि० पू० २८८ वर्ष 1 [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समक्ष क्या खाकर ठहरते ? अन्त में युद्ध-क्षेत्र का परित्याग करना ही चाणक्य की सम्मति से उचित समझा गया और अब चन्द्रगुप्त और चाणक्य गुप्त भेष में भ्रमण करने लगे। अनेक बार शत्रुओं के गुप्तचरों से बच निकलने का साहस किया था जिसको आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने परिशिष्ट पर्व के आठवा स्वर्ग में खूब विस्तार से मनोरञ्जक उल्लेख किया है किन्तु विस्तार भय से यहां पर नहीं लिख कर मैं पाठकों को सलाह देता हूँ कि पूर्वोक्त ग्रन्थ से पढ़ लें। यहाँ तो सिर्फ एक उदाहरण का उल्लेख कर दिया जाता है जैसे चाणक्य और चन्द्रगुप्त जब गुप्त-वेष में भ्रमण कर रहे थे तब एक रोज अकस्मात किसी गाँव में एक बुढ़िया के घर जा पहुँचे। बुढ़िया ने उस समय खिचड़ी पकाई हुई थी और गरम गरम थाली में, निकाल कर अपने बच्चों को दे रही थी, उसमें एक लड़के ने कुछ अधिक भूखा और उतावला होने के कारण-- जल्दी खाने के लिये खिचड़ी के बीच में हाथ मारा, खिचड़ी बहुत गरम थी, इसलिये उसका हाथ जल गया और हाथ जलने से लड़का बुवे मारकर रोने लगा। लड़के की यह चेष्टा देखकर बुढ़िया बोली "अरे मूर्ख ! तू भी चन्द्रगुप्त और चाणक्य के सामन अबोध ही रहा।" - अपना नाम सुनकर चन्द्रगुप्त और चणक्य उस बुढ़िया के समीप चले गये, और पूछा-मैया! यह चन्द्रगुप्त और चाणक्य कौन है? और इस लड़के के हाथ जलने पर उसके दृष्टान्त से तुम्हारा क्या प्रयोजन है?" बुढ़िया बोली ! चन्द्रगुप्त भी एक राजपूत है जो सम्राट् बनने की अभिलाषा रखता है, उसने सीमाप्रान्त के बिजय किये बगैर ही मुख्य राजधानी पर आक्रमण कर दिया, इसीसे लोग उसके विरुद्ध उठ खड़े हुये और सीमाप्रान्तों से आक्रमण करके उसको बीचमें घेर लिया बगैर सीमाप्रान्तों के विजय किये राजधानी पर एवं बीच के शहरों पर-आक्रमण कर देना, यही उसकी मूर्खता थी, उसी तरह इस लड़के ने भी आस पास की ठंडी खिचड़ी छोड़कर गरमा-गरम खिचड़ी में हाथ मारा तभी इसका हाथ जल गया। बुढ़िया की भेद-भरी बातों से चाणक्य और चन्द्रगुप्त की आंखें खुली वे मन ही मन में उस बुढ़िया को प्रणाम कर के वहां से रवाना हुये और बहुत शीघ्र एक विशाल सैन्य संगठित करके अबकी बार उन्होंने सीमाप्रान्त को अधीन किया और वहां से ग्रामों और नगरों को विजय करते हुये उनके स्वामियों को अपने पक्ष में लेते हुए धीरे-धीरे पाटलिपुत्र तक बढ़ आये और राजा नन्द (जो उस समय का सबसे बलशाली नरेश था)--पर आक्रमण कर दिया । राजा नन्द को चन्द्रगुप्त के रण-कौशल के सामने अपने घुटने टेकने पड़े और जब वह चारों और से हताश हो गया तब चुपचाप चन्द्रगुप्त और चाणक्य की स्वीकृति से राज्य-छोड़ कर कहीं चला गया । जाते समय राजा नन्द की एक युवती कन्या चंद्रगुप्त पर आशक्त हो गई थी, अतएव उसे चंद्रगुप्त को पति करने की सहर्ष अनुमति राजा नंद ने दे दी ऐसा आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत परिशिष्टपर्वमें उल्लेख मिलता है। संक्षेप में यही चंद्रगुप्त का जीवन-वृतांत है ! मगध का राज्य प्राप्त कर लेने पर चंद्रगुप्त ने यूनानी आक्रमणकर्ता सेल्युकस को कैसी गहरी हार दी, फिर काबुल, कंधार, हिरात जैसे प्रदेश लेकर और उसकी कन्या के साथ ब्याह कर संधि करली है।। चन्द्रगुप्त के समय में भारत की सभ्यता किस प्रकार की थी जिसके विषय में कई यत्र तत्र प्रमाण उपलब्ध होते हैं परन्तु भारतसम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में यूनान का रे ल्यूकस जो सम्राट के हाथों से पराजय हो सन्धि करली थी जिसका हाल ऊपर लिखा है, उसका दूत मेगस्थनीज भारत में आया और २६२ Jain Educatie ternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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