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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ५५७-१७४
इस पर एक ब्राह्मण ने सवाल किया कि गुरु महाराज ! आपका कहना तो सत्य है कि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये पर शास्त्रों में ऐसा भी तो कहा है:
__"अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे नैव च नैव च" अर्थात् जहां तक पुत्रोत्पत्ति न हो वहां तक उसकी स्वर्ग में गति नहीं होती है । अतः गति की इच्छा वाले को शादी कर पुत्रोत्पत्ति अवश्य करनी चाहिये फिर बाद में वह ब्रह्मचर्य व्रत पालन कर सकता है ।
सूरिजी ने कहा भूर्षि ! ब्रह्मचर्य्य व्रत दो प्रकार से पालन कर सकते हैं एक साधु धर्म से दूसरा गृहस्थ धर्म से । इसमें साधु धर्म में तो सर्वथा नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य्यव्रत पालन करना चाहिये जैसे
१-जिस स्थान में स्त्री नपुंसक पशु आदि रहते हों वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिये । साक्षात् स्त्री तो क्या पर स्त्री का चित्र हो वहां भी नहीं ठहरे । कारण यह बातें ब्रह्मचर्य व्रत में बाधा डालने वाली हैं। जैसे जिस मकान में मंजीरी रहती हो वहां मूषक ठहरेगा तो कभी उसका विनाश ही होगा।
९-ब्रह्मचारी को हास्यरस शृगाररस कामरसादि विकार उत्पन्न करने वाली कया नहीं करनी चाहिये । जैसे नींबू का नाम लेने पर मुंह में पानी छूट ही जाता है ।
३ - जहां स्त्री बैठी हो वहां दो घड़ी तक पुरुष को नहीं बैठना चाहिये । कारण, उस स्थान के परमाणु ऐसे विकारी हो जाते हैं कि ब्रह्मचर्य का भंग कर डालते हैं । जैसे जिस जमीन पर आग लगाई है वहां से आग को हटा कर तत्काल ही ठसा हुआ घृत रखदें तो वह बिना पिघले नहीं रहेगा
४-स्त्रियों के अंगोपांग एवं मुँह स्तन नयन नासिकादि इन्द्रियों को सराग से नहीं देखता जैसे आँखों का श्रोपरेशन कराया हुआ सूर्य की ओर देखेगा तो उसको बड़ा भारी नुकसान होगा।
५-जहां भीत, ताटी, कनात के अन्तर में स्त्री पुरुषों के विषय वचन हो रहा है उसको सुनने की भी मनाई है । जैसे आकाश में घन गर्जना होने से मयूर बोलने लग जाते हैं।
६-पूर्व संवन किये हुये काम विकार को कभी याद नहीं करना । कारण, जैसे एक बुढ़िया के यहां दो युवक मुसाफिर ठहरे थे। जब वे मुसाफर चलने लगे तो बुढ़िया ने अंधेरे में ही छाछ बिलो कर उनको दे दी । वह छाछ पीकर वे दिसावर को रवाना हो गये । बाद कुछ वर्षों के वे फिर लौट कर आये और उसी बुढ़िया के यहाँ ठहरे। बुढ़िया ने उनको पहचान कर कहा 'अरे बेटा क्या तुम जीते आये हो' । युवकों ने पूछा क्यों ? बुढिया ने कहा उस दिन अंधेरे में असावधानी से दही के साथ साप बिलोया गया था और वह विषमिश्रित छा र तुमको दी थी एवं पिलाइ थी। यह बात सुनते ही उन दोनों के प्राण पखेरू उड़ गये । इसी प्रकार पिछले भोग विलास को याद करते ही मनुष्य विषय विकार व्याप्त हो जाता है।
___--ब्रह्मचारी को हमेशा सरस आहार जो बल वीर्य विकार की वृद्धि करने वाला हो, नहीं करना चाहिये । यदि करेगा तो उसका ब्रह्म वयं व्रत सुख पूर्वक नहीं पल सकेगा। जैसे सन्निपात के रोग वाले को दूध शककर पिला देने से उलटो रोग की वृद्धि होगी।
८-रूक्ष भोजन भी प्रमाण से अधिक न करे । करेगा तो जैसे सेर को हांडी में सवा सेर चना पकाने में हांडी फट जाती है, वही हाल ब्रह्मचार्य व्रत का होगा।
९-- ब्रह्मचारी को शौक मोज के लिये नहाना धोना शृंगार शोभा करना वगैरह को शख्त मनाई हैं। क्यों क दारू की दुकान में अग्नि की सतावाला सामान रखने से कभी न कभी दुकान में आग लग ही जाती ब्रह्मचर्यव्रत का महत्त्व ]
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